Muktinath

मुक्तिनाथ

मुक्तिनाथ वैष्‍णव संप्रदाय के प्रमुख मंदिरों में से एक है। यह तीर्थस्‍थान शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है। शालिग्राम दरअसल एक पवित्र पत्‍थर होता है जिसको हिंदू धर्म में पूजनीय माना जाता है।] यह मुख्‍य रूप से नेपाल की ओर प्रवाहित होने वाली काली गण्‍डकी नदी में पाया जाता है। जिस क्षेत्र में मुक्तिनाथ स्थित हैं उसको मुक्तिक्षेत्र’ के नाम से जाना जाता हैं। हिंदू धार्मिक मान्‍यताओं के अनुसार यह वह क्षेत्र है, जहां लोगों को मुक्ति या मोक्ष प्राप्‍त होता है। मुक्तिनाथ की यात्रा काफी मुश्किल है। फिर भी हिंदू धर्मावलंबी बड़ी संख्‍या में यहां तीर्थाटन के लिए आते हैं। यात्रा के दौरान हिमालय पर्वत के एक बड़े हिस्‍से को लांघना होता है। यह हिंदू धर्म के दूरस्‍थ तीर्थस्‍थानों में से एक है।

मुक्तिनाथ 108 दिव्‍य देशों में से एक है। यह ‘दिव्‍य देश’ वैष्‍णवों का पवित्र मंदिर होता है। पारंपरिक रूप से विष्‍णु शालिग्राम शिला या शालिग्राम पत्‍थर के रूप में पूजे जाते हैं। इस पत्‍थर का निर्माण प्रागैतिहासिक काल में पाए जाने वाले कीटों के जीवाश्‍म से हुआ था, जो मुख्‍यत: टेथिस सागर में पाए जाते थे। जहां अब हिमालय पर्वत है। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार शालिग्राम शिला में विष्‍णु का निवास होता है। इस संबंध में अनेक पौराणिक कथाएं भी प्रचलित हैं। इन्‍हीं कथाओं में से एक के अनुसार जब भगवान शिव जालंधर नामक असुर से युद्ध नहीं जीत पा रहे थे तो भगवान विष्‍णु ने उनकी मदद की थी। कथाओं में कहा गया है कि जब तक असुर जालंधर की पत्‍नी वृंदा अपने सतीत्‍व को बचाए रखती तब तक जालंधर को कोई पराजीत नहीं कर सकता था। ऐसे में भगवान विष्‍णु ने जालंधर का रूप धारण करके वृंदा के सतीत्‍व को नष्‍ट करने में सफल हो गए। जब वृंदा को इस बात का अहसास हुआ तबतक काफी देर हो चुकी थी। इससे दुखी वृंदा ने भगवान विष्‍णु को कीड़े-मकोड़े बनकर जीवन व्‍यतीत करने का शाप दे डाला। फलस्‍वरूप कालांतर में शालिग्राम पत्‍थर का निर्माण हुआ, जो हिंदू धर्म में आराध्‍य हैं। पुरानी दंतकथाओं के अनुसार मुक्तिक्षेत्र वह स्‍थान है जहां पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहीं पर भगवान विष्‍णु शालिग्राम पत्‍थर में निवास करते हैं। मुक्तिनाथ बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए भी एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। इसी स्‍थान से होकर उत्‍तरी-पश्चिमी क्षेत्र के महान बौद्ध भिक्षु पद्मसंभव बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए तिब्‍बत गए थे।

मुक्तिनाथ मंदिर एक प्रसिद्ध हिंदू और तिब्बती बौद्ध तीर्थस्थल है, जो नेपाल के मस्तांग जिले में स्थित है। यह मंदिर 3,800 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है, जो इसे दुनिया के सबसे ऊंचे मंदिरों में से एक बनाता है। मंदिर भगवान विष्णु को समर्पित है और उनके शालिग्राम रूप की पूजा की जाती है। 

ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु को वृंदा के श्राप के कारण शालिग्राम रूप में परिवर्तित होना पड़ा था। मुक्तिनाथ में ही उन्हें इस श्राप से मुक्ति मिली थी, इसलिए इस मंदिर का नाम मुक्तिनाथ पड़ा !

देवी भगवत पुराण के अनुसार, मुक्तिनाथ 51 शक्तिपीठों में से एक है, जहां सती के शरीर के अंग गिरे थे।

मुक्तिनाथ शालिग्राम भगवान के लिए प्रसिद्ध है, जो काली गंडकी नदी में पाए जाते हैं।मुक्तिनाथ 108 दिव्‍य देशों में से एक है। यह ‘दिव्‍य देश’ वैष्‍णवों का पवित्र मंदिर होता है। पारंपरिक रूप से विष्‍णु शालिग्राम शिला या शालिग्राम पत्‍थर के रूप में पूजे जाते हैं। इस पत्‍थर का निर्माण प्रागैतिहासिक काल में पाए जाने वाले कीटों के जीवाश्‍म से हुआ था, जो मुख्‍यत: टेथिस सागर में पाए जाते थे। जहां अब हिमालय पर्वत है। पौराणिक मान्‍यताओं के अनुसार शालिग्राम शिला में विष्‍णु का निवास होता है। इस संबंध में अनेक पौराणिक कथाएं भी प्रचलित हैं। इन्‍हीं कथाओं में से एक के अनुसार जब भगवान शिव जालंधर नामक असुर से युद्ध नहीं जीत पा रहे थे तो भगवान विष्‍णु ने उनकी मदद की थी।] कथाओं में कहा गया है कि जब तक असुर जालंधर की पत्‍नी वृंदा अपने सतीत्‍व को बचाए रखती तब तक जालंधर को कोई पराजीत नहीं कर सकता था। ऐसे में भगवान विष्‍णु ने जालंधर का रूप धारण करके वृंदा के सतीत्‍व को नष्‍ट करने में सफल हो गए। जब वृंदा को इस बात का अहसास हुआ तबतक काफी देर हो चुकी थी। इससे दुखी वृंदा ने भगवान विष्‍णु को कीड़े-मकोड़े बनकर जीवन व्‍यतीत करने का शाप दे डाला। फलस्‍वरूप कालांतर में शालिग्राम पत्‍थर का निर्माण हुआ, जो हिंदू धर्म में आराध्‍य हैं। पुरानी दंतकथाओं के अनुसार मुक्तिक्षेत्र वह स्‍थान है जहां पर मोक्ष की प्राप्ति होती है। यहीं पर भगवान विष्‍णु शालिग्राम पत्‍थर में निवास करते हैं। मुक्तिनाथ बौद्ध धर्मावलंबियों के लिए भी एक महत्‍वपूर्ण स्‍थान है। इसी स्‍थान से होकर उत्‍तरी-पश्चिमी क्षेत्र के महान बौद्ध भिक्षु पद्मसंभव बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए तिब्‍बत गए थे।

यात्रा

मुक्तिनाथ हेलिकॉप्‍टर के द्वारा पोखरा-मुक्तिनाथ मार्ग या जोमसोम मार्ग से भी एक दिन में जाया जा सकता है। इस मार्ग ने परंपरागत चढ़ाई के रास्‍ते को कुछ हद तक कम किया है। लेकिन आज भी आम लोग मुक्तिनाथ जाने के लिए चढ़ाई को ही प्राथमिकता देते हैं। चढ़ाई के समय दो अलग-अलग रास्‍ते मिलते हैं, जो काली गंडक नदी के पास तातोपानी नामक जगह पर जाकर आपस में मिल जाती है। रास्‍ते में आमतौर पर सभी जगहों पर रुकने के लिए निजी लॉज मिल जाते हैं। ये लॉज सभी तरह की मुलभूत सुविधाएं मुहैया कराते हैं। कई बार तो यात्रियों के लिए काफी बेहतर सुविधाएं भी उपलब्‍ध कराई जाती हैं। इन सबके बावजूद तीर्थयात्रियों को अपने साथ स्लिपींग बैग भी जरूर ले जाना चाहिए ताकि किसी भी तरह के अतिरिक्‍त परेशानियों से बचा जा सके। यात्रा के दौरान मार्ग में पिट्ठू आसानी से उपलब्‍ध हो जाते हें। इन पिट्ठुओं को यात्रियों के द्वारा ही भोजन दिया जाता है। चूंकि इस मार्ग का उपयोग विदेशियों के द्वारा भी किया जाता है, अत: यहां खाने की अच्‍छी व्‍यवस्‍था होती है। भोजन में शाकाहारी और मांसाहारी दोनों तरह के भोजन उपलब्‍ध रहते हैं। इसके अलावा सीलबंद पानी भी आसानी से मिल जाता है। लेकिन सामान्‍यत: नेपाली शैली का भोजन दाल-भात आसानी से मिलता है। अगर आप गाइड रखना चाहते हैं तो वह भी मिल सकता है।

मुक्तिनाथ की यात्रा 5-6 दिनों में पूरी होती है।

पहला‍ दिन

काठमांडु से 200 कि॰मी॰ पश्चिम में स्थित पोखरा से बस के द्वारा यात्रा प्रारंभ होती है। इस दौरान आप पोखरा शहर को देखने का लुत्‍फ उठा सकते हैं।

दूसरा दिन  

यहां से 20 मिनट की हवाई यात्रा करके जोमसोम जाना होता है। इसके बाद 2 घंटे की चढ़ाई के उपरांत कागबेणी में रात्रि विश्राम कर सकते हैं। मध्‍यकालीन शैली में बसे छोटे-छोटे तिब्‍बती गांवों के अलावा वहां के खूबसूरत वातावरण का भी मजा लिया जा सकता है।

तीसरा दिन

मुक्तिनाथ के लिए 6 घंटे लंबी चढ़ाई की शुरूआत होती है। मध्‍यमार्ग में आप लंच ले सकते हैं। इसके बाद पवित्र स्‍नान के उपरांत पूजा-अर्चना प्रारंभ हो जाती है।

चौथा दिन

सुबह के नास्‍ते के बाद उतरने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। जोमसोम में पहली रात गुजारना होता है।

पांचवां दिन

अगले सुबह पोखरा के लिए हवाई मार्ग से जाना होता है। इसके बाद काठमांडु के लिए उपलब्‍ध माध्‍यमों के द्वारा प्रस्‍थान किया जाता है।

वैकल्पिक मार्ग

जोमसोम से मुक्तिनाथ एक दिन की चढ़ाई पर स्थित है। पोखरा काठमांडु से लगभग 200 कि॰मी॰ की दूरी पर है। जोमसोम पोखरा से 48 कि॰मी॰ उत्‍तर में स्थित है।

काठमांडु से मुक्तिनाथ: मुख्‍य राजमार्ग पोखरा से बेनीघाट और खैरानी के रास्‍ते से होकर जाती है। बेनी से होते हुए सुईखेत, नयापुल, कुश्‍मा और बगलुंग के लिए भी रोड जाती है। चढ़ाई के लिए तुकुचे से होकर तातोपानी, घासा और लारजुंग के रास्‍ते मार्ग जाती है। जोमसोम से होकर मार्फा और स्‍यांग के लिए सड़क मार्ग। मुक्तिनाथ से झारकोट के लिए चढ़ाई का रास्‍ता जाता है।

पहचान पत्र और मुद्रा-: भारतीयों के लिए वीजा की कोई आवश्‍यकता नहीं है। लेकिन वैसे यात्री जो हवाई मार्ग से यात्रा करते हैं, उनके लिए मतदाता पहचानपत्र या पैन कार्ड संबंधी दस्‍तावेज देना आवश्‍यक है। भारतीय मुद्रा अबाध रूप से लाया जा सकता है। विनिमय की सुविधा भी उपलब्‍ध है। लेकिन 100 रू. से ज्‍यादा का नोट ले जाना प्रतिबंधित है। भारत के 100 रू. के नोट के बदले 160 नेपाली रूपए दिया जाता है।

भारत से मुक्तिनाथ-: राजधानी दिल्‍ली से काठमांडु के लिए नियमित रूप से फ्लाइटें हैं। इसके अलावा कोलकाता, वाराणसी, बेंगलोर और पटना से भी नियमित फ्लाइटें हैं। दिल्‍ली और कोलकाता से सड़क मार्ग के द्वारा भी यात्रा किया जा सकता है। इसमें कुल 8-10 घंटे लगते हैं। नेपाल स्थित बीरगंज रक्‍सौल से काफी नजदीक है। यहां से काठमांडु के लिए हवाई यात्रा का मार्ग मात्र 30 मिनट की है। गोरखपुर से भी काठमांडु जाया जा सकता है।

काठमांडु से मुक्तिनाथ-: पोखरा को मुक्तिनाथ का ‘गेटवे’ भी कहा जाता है जो केंद्रीय नेपाल में स्थित है। दर्शानार्थियों को यह सलाह दी जाती है कि वे पहले काठमांडु आएं तथा वहां से पोखरा के लिए सड़क या हवाई मार्ग से जा सकते हैं। वहां से पुन: जोमसोम जाना होता है। यहां से मुक्तिनाथ जाने के लिए आप हेलिकॉप्‍टर या फ्लाइट ले सकते हैं। यात्री बस के माध्‍यम से भी यात्रा कर सकते हैं। सड़क मार्ग से जाने पर पोखरा पहुंचने के लिए कुल 200 कि॰मी॰ की दूरी तय करनी होती है। पोखरा से मुक्तिनाथ के लिए 8-9 घंटे की चढ़ाई करनी होती है। इसके साथ ही टट्टू से भी जाया जा सकता है।

✈️ Route Option 1: Fly + Road (Fastest & most scenic)

  1. Delhi → Kathmandu (Flight)
    – Approx. 1.5 hours, multiple direct flights.
  2. Kathmandu → Pokhara
    – Either a 30–60 min domestic flight or ~6‑8 hr scenic drive along Prithvi Highwayyatratrip.comnaturewings.com+2triptotemples.com+2yatratrip.com+2.
  3. Pokhara → Jomsom (Flight)
    – 20‑25 min mountain flight with beautiful Himalayan viewshikeontreks.com+15discoveryworldtrekking.com+15triptotemples.com+15.
  4. **Jomsom → Muktinath (Jeep/Trek)**
    – Jeep: ~2 hr via quaint villages (Kagbeni, etc.).
    – Trek: ~5‑6 hr trek over scenic terrain

🚗 Route Option 2: Full Overland via Road & Jeep

  1. Delhi → Kathmandu
  2. Kathmandu → Pokhra
  3. Pokhara → Jomsom
  4. Jomsom → Muktinath

🚁 Route Option 3: Helicopter from Kathmandu

  • Kathmandu → Muktinath (Helicopter)
    – Only ~1.5 hrs flight. Then ~30 min walk from Ranipauwa to temple

भूमध्य सागर

भूमध्य सागर अटलांटिक महासागर से संयोजित एक सागर है, भूमध्य बेसिन से घिरा हुआ है और लगभग पूरी तरह से ज़मीन से घिरा: उत्तर में पश्चिमी यूरोप, दक्षिणी यूरोप और अनातोलिया, दक्षिण में उत्तरी अफ्रीका और पूर्व में लेवंट द्वारा। है। इसका क्षेत्रफल लगभग 2,500,000 km2 (970,000 वर्ग मिल) है, जो भारत के क्षेत्रफल का लगभग 75 फ़ीसदी है। भूमध्य सागर वैश्विक महासागरीय सतह के 0.7% का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन इसका संबंध जिब्राल्टर जलडमरूमध्य के माध्यम से अटलांटिक महासागर के साथ होता है। जिब्राल्टर जलडमरूमध्य संकीर्ण जलडमरूमध्य जो अटलांटिक महासागर को भूमध्य सागर से जोड़ता है और यूरोप के देश स्पेन को अफ्रीका के देश मोरक्को से अलग करता है जो केवल 14 किमी (9 मील) चौड़ा है।

विष्णु 

विष्णु सनातन धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं जिनको नारायण और हरि के नाम से भी जाना जाता है। विष्णु को जगत का पालनकर्ता माना जाता है, जब अधर्म और पाप बढ़ता है तब वे अवतार लेते हैं। वैष्णववाद के भीतर सर्वोच्च हैं, जो समकालीन हिन्दू धर्म के भीतर प्रमुख परंपराओं में से एक है।

हिन्दू धर्म के आधारभूत ग्रन्थों में बहुमान्य पुराणानुसार भगवान विष्णु परमेश्वर के तीन मुख्य रूपों में से एक रूप हैं। पुराणों में त्रिमूर्ति भगवान विष्णु को विश्व या जगत का पालनहार कहा गया है। त्रिमूर्ति के अन्य दो रूप ब्रह्मा और शिव को माना जाता है। ब्रह्मा जी को जहाँ विश्व का सृजन करने वाला माना जाता है, वहीं शिव जी को संहारक माना गया है। मूलतः भगवान विष्णु, शिव तथा ब्रह्मा भी एक ही हैं यह मान्यता भी बहुशः स्वीकृत रही है। न्याय को प्रश्रय अन्याय के विनाश तथा जीव (मानव) को परिस्थिति के अनुसार उचित मार्ग-ग्रहण के निर्देश हेतु विभिन्न रूपों में अवतार ग्रहण करनेवाले के रूप में भगवान विष्णु मान्य रहे हैं। कल्की अवतार १०वां (आखिरी) अवतार है।

जब भी दुनिया को बुराई, अराजकता और विनाशकारी ताकतों से खतरा होता है, तो विष्णु ब्रह्मांडीय व्यवस्था को बहाल करने और धर्म की रक्षा के लिए अवतार के रूप में अवतरित होते हैं। दशावतार विष्णु के दस प्राथमिक अवतार हैं। इन दस में से राम और कृष्ण सबसे महत्वपूर्ण हैं।[1]

पुराणानुसार भगवान विष्णु की पत्नी देवी लक्ष्मी हैं। पौराणिक कथा के अनुसार तुलसी भी भगवान् विष्णु को लक्ष्मी के समान ही प्रिय है[2] और इसलिए उसे ‘विष्णुप्रिया’ के रूप में मान्यता प्राप्त है। भगवान विष्णु का निवास क्षीरसागर है। उनका शयन शेषनाग के ऊपर है। उनकी नाभि से कमल उत्पन्न होता है जिसमें ब्रह्मा जी स्थित हैं।

वह अपने नीचे वाले बाएँ हाथ में पद्म [कमल]), अपने नीचे वाले दाहिने हाथ में गदा (कौमोदकी) ,ऊपर वाले बाएँ हाथ में शंख (पाञ्चजन्य) और अपने ऊपर वाले दाहिने हाथ में चक्र(सुदर्शन) धारण करते हैं।

जिवन के मुखय स्त्रोत व देवो के संहायक अपनी दोनों पत्नियों के साथ गरुड़ पर भगवान विष्णशेष शय्या पर आसीन विष्णु, लक्ष्मी व ब्रह्मा के साथ, चम्बा पहाड़ी शैली के एक लघुचित्र में।]]

शालीग्राम 

शालीग्राम एक प्रकार का जीवाश्म पत्थर है, जिसका प्रयोग परमेश्वर के प्रतिनिधि के रूप में भगवान का आह्वान करने के लिए किया जाता है। शालीग्राम आमतौर पर पवित्र नदी की तली या किनारों से एकत्र किया जाता है। शिव भक्त पूजा करने के लिए शिव लिंग के रूप में लगभग गोल या अंडाकार शालिग्राम का उपयोग करते हैं।

वैष्णव (हिन्दू) पवित्र नदी गंडकी में पाया जाने वाला एक गोलाकार, आमतौर पर काले रंग के एमोनोइड (en:Ammonoid) जीवाश्म को विष्णु के प्रतिनिधि के रूप में उपयोग करते हैं।

शालीग्राम को प्रायः ‘शिला’ कहा जाता है। शिला शालिग्राम का छोटा नाम है जिसका अर्थ “पत्थर” होता है। शालीग्राम विष्णु का एक कम प्रसिद्ध नाम है। इस नाम की उत्पत्ति के सबूत नेपाल के एक दूरदराज़ के गाँव से मिलते है जहां विष्णु को शालीग्रामम् के नाम से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में शालीग्राम को सालग्राम के रूप में जाना जाता है। शालीग्राम का सम्बन्ध सालग्राम नामक गाँव से भी है जो गंडकी नामक नदी के किनारे पर स्थित है तथा यहां से ये पवित्र पत्थर भी मिलता है।


पद्मपुराण के अनुसार – गण्डकी अर्थात नारायणी नदी के एक प्रदेश में शालिग्राम स्थल नाम का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है; वहाँ से निकलनेवाले पत्थर को शालिग्राम कहते हैं। शालिग्राम शिला के स्पर्शमात्र से करोड़ों जन्मों के पाप का नाश हो जाता है। फिर यदि उसका पूजन किया जाय, तब तो उसके फल के विषय में कहना ही क्या है; वह भगवान के समीप पहुँचाने वाला है। बहुत जन्मों के पुण्य से यदि कभी गोष्पद के चिह्न से युक्त श्रीकृष्ण शिला प्राप्त हो जाय तो उसी के पूजन से मनुष्य के पुनर्जन्म की समाप्ति हो जाती है। पहले शालिग्राम-शिला की परीक्षा करनी चाहिये; यदि वह काली और चिकनी हो तो उत्तम है। यदि उसकी कालिमा कुछ कम हो तो वह मध्यम श्रेणी की मानी गयी है। और यदि उसमें दूसरे किसी रंग का सम्मिश्रण हो तो वह मिश्रित फल प्रदान करने वाली होती है। जैसे सदा काठ के भीतर छिपी हुई आग मन्थन करने से प्रकट होती है, उसी प्रकार भगवान विष्णु सर्वत्र व्याप्त होने पर भी शालिग्राम शिला में विशेष रूप से अभिव्यक्त होते हैं। जो प्रतिदिन द्वारका की शिला-गोमती चक्र से युक्त बारह शालिग्राम मूर्तियों का पूजन करता है, वह वैकुण्ठ लोक में प्रतिष्ठित होता है। जो मनुष्य शालिग्राम-शिला के भीतर गुफ़ा का दर्शन करता है, उसके पितर तृप्त होकर कल्प के अन्ततक स्वर्ग में निवास करते हैं। जहाँ द्वारकापुरी की शिला- अर्थात गोमती चक्र रहता है, वह स्थान वैकुण्ठ लोक माना जाता है; वहाँ मृत्यु को प्राप्त हुआ मनुष्य विष्णुधाम में जाता है। जो शालग्राम-शिला की क़ीमत लगाता है, जो बेचता है, जो विक्रय का अनुमोदन करता है तथा जो उसकी परीक्षा करके मूल्य का समर्थन करता है, वे सब नरक में पड़ते हैं। इसलिये शालिग्राम शिला और गोमती चक्र की ख़रीद-बिक्री छोड़ देनी चाहिये। शालिग्राम-स्थल से प्रकट हुए भगवान शालिग्राम और द्वारका से प्रकट हुए गोमती चक्र- इन दोनों देवताओं का जहाँ समागम होता है, वहाँ मोक्ष मिलने में तनिक भी सन्देह नहीं है। द्वारका से प्रकट हुए गोमती चक्र से युक्त, अनेकों चक्रों से चिह्नित तथा चक्रासन-शिला के समान आकार वाले भगवान शालिग्राम साक्षात चित्स्वरूप निरंजन परमात्मा ही हैं। ओंकार रूप तथा नित्यानन्द स्वरूप शालिग्राम को नमस्कार है।

शालिग्राम का स्वरूप – जिस शालिग्राम-शिला में द्वार-स्थान पर परस्पर सटे हुए दो चक्र हों, जो शुक्ल वर्ण की रेखा से अंकित और शोभा सम्पन्न दिखायी देती हों, उसे भगवान श्री गदाधर का स्वरूप समझना चाहिये। संकर्षण मूर्ति में दो सटे हुए चक्र होते हैं, लाल रेखा होती है और उसका पूर्वभाग कुछ मोटा होता है। प्रद्युम्न के स्वरूप में कुछ-कुछ पीलापन होता है और उसमें चक्र का चिह्न सूक्ष्म रहता है। अनिरुद्ध की मूर्ति गोल होती है और उसके भीतरी भाग में गहरा एवं चौड़ा छेद होता है; इसके सिवा, वह द्वार भाग में नील वर्ण और तीन रेखाओं से युक्त भी होती है। भगवान नारायण श्याम वर्ण के होते हैं, उनके मध्य भाग में गदा के आकार की रेखा होती है और उनका नाभि-कमल बहुत ऊँचा होता है। भगवान नृसिंह की मूर्ति में चक्र का स्थूल चिह्न रहता है, उनका वर्ण कपिल होता है तथा वे तीन या पाँच बिन्दुओं से युक्त होते हैं। ब्रह्मचारी के लिये उन्हीं का पूजन विहित है। वे भक्तों की रक्षा करनेवाले हैं। जिस शालिग्राम-शिला में दो चक्र के चिह्न विषम भाव से स्थित हों, तीन लिंग हों तथा तीन रेखाएँ दिखायी देती हों; वह वाराह भगवान का स्वरूप है, उसका वर्ण नील तथा आकार स्थूल होता है। भगवान वाराह भी सबकी रक्षा करने वाले हैं। कच्छप की मूर्ति श्याम वर्ण की होती है। उसका आकार पानी की भँवर के समान गोल होता है। उसमें यत्र-तत्र बिन्दुओं के चिह्न देखे जाते हैं तथा उसका पृष्ठ-भाग श्वेत रंग का होता है। श्रीधर की मूर्ति में पाँच रेखाएँ होती हैं, वनमाली के स्वरूप में गदा का चिह्न होता है। गोल आकृति, मध्यभाग में चक्र का चिह्न तथा नीलवर्ण, यह वामन मूर्ति की पहचान है। जिसमें नाना प्रकार की अनेकों मूर्तियों तथा सर्प-शरीर के चिह्न होते हैं, वह भगवान अनन्त की प्रतिमा है। दामोदर की मूर्ति स्थूलकाय एवं नीलवर्ण की होती है। उसके मध्य भाग में चक्र का चिह्न होता है। भगवान दामोदर नील चिह्न से युक्त होकर संकर्षण के द्वारा जगत की रक्षा करते हैं। जिसका वर्ण लाल है, तथा जो लम्बी-लम्बी रेखा, छिद्र, एक चक्र और कमल आदि से युक्त एवं स्थूल है, उस शालिग्राम को ब्रह्मा की मूर्ति समझनी चाहिये। जिसमें बृहत छिद्र, स्थूल चक्र का चिह्न और कृष्ण वर्ण हो, वह श्रीकृष्ण का स्वरूप है। वह बिन्दुयुक्त और बिन्दुशून्य दोनों ही प्रकार का देखा जाता है। हयग्रीव मूर्ति अंकुश के समान आकार वाली और पाँच रेखाओं से युक्त होती है। भगवान वैकुण्ठ कौस्तुभ मणि धारण किये रहते हैं। उनकी मूर्ति बड़ी निर्मल दिखायी देती है। वह एक चक्र से चिह्नित और श्याम वर्ण की होती है। मत्स्य भगवान की मूर्ति बृहत कमल के आकार की होती है। उसका रंग श्वेत होता है तथा उसमें हार की रेखा देखी जाती है। जिस शालिग्राम का वर्ण श्याम हो, जिसके दक्षिण भाग में एक रेखा दिखायी देती हो तथा जो तीन चक्रों के चिह्न से युक्त हो, वह भगवान श्री रामचन्द्रजी का स्वरूप है, वे भगवान सबकी रक्षा करनेवाले हैं। द्वारकापुरी में स्थित शालिग्राम स्वरूप भगवान गदाधर।

भगवान गदाधर एक चक्र से चिह्नित देखे जाते हैं। लक्ष्मीनारायण दो चक्रों से, त्रिविक्रम तीन से, चतुर्व्यूह चार से, वासुदेव पाँच से, प्रद्युम्न छ: से, संकर्षण सात से, पुरुषोत्तम आठ से, नवव्यूह नव से, दशावतार दस से, अनिरुद्ध ग्यारह से और द्वादशात्मा बारह चक्रों से युक्त होकर जगत की रक्षा करते हैं। इससे अधिक चक्र चिह्न धारण करने वाले भगवान का नाम अनन्त है।

शिव 

शिव  हिंदु धर्म के सबसे प्राचीन और लोकप्रिय देवता हैं, उन्हे जगत का संहारक देवता भी माना जाता है। हिंदू धर्म और विशेष रूप से शैव, शाक्त संप्रदायो में उन्हे परब्रह्म (सर्वोच्च ईश्वर) माना गया है। वह त्रिदेवों में एक देव हैं। इन्हें देवों के देव( महादेव ),भोलेनाथ, शंकर, आदिदेव , आशुतोष, महेश, कपाली, पार्वतीवल्लभ, कपाली , महाकाल, रामेश्वर, भिलपती, भिलेश्वर,रुद्र, नीलकंठ, गंगाधार आदि नामों से भी जाना जाता है। तंत्र साधना में उन्हे भैरव तथा वैदिक साहित्य में उन्हे रुद्र कहा गया है। भगवान शिव की शक्ति और अर्धांगिनी माता पार्वती है, शिव नित्य कैलाश लोक में अपनी प्रियतमा सहचारी मां पार्वती के साथ विहार करते हैं। इनके पुत्र कार्तिकेय , अय्यपा और गणेश हैं, तथा पुत्रियां अशोक सुंदरी , ज्योति और मनसा देवी हैं। शिव अधिक्तर चित्रों में योगी के रूप में देखे जाते हैं और उनकी पूजा शिवलिंग तथा मूर्ति दोनों रूपों में की जाती है। शिव के गले में नाग देवता विराजित हैं और हाथों में डमरू और त्रिशूल लिए हुए हैं। कैलाश में उनका वास है। यह शैव मत के आधार है। इस मत में शिव के साथ शक्ति सर्व रूप में पूजित है।

शिवजी को संहार का देवता कहा जाता है। शंंकर जी सौम्य आकृति एवं रौद्ररूप दोनों के लिए विख्यात हैं। इन्हें अन्य देवों से बढ़कर माना जाने के कारण महादेव कहा जाता है। सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति एवं संहार के अधिपति शिव हैं। त्रिदेवों में भगवान शिव संहार के देवता माने गए हैं। शिव अनादि तथा सृष्टि प्रक्रिया के आदि स्रोत हैं और यह काल महाकाल ही ज्योतिषशास्त्र के आधार हैं। शिव का अर्थ यद्यपि कल्याणकारी माना गया है, लेकिन वे हमेशा लय एवं प्रलय दोनों को अपने अधीन किए हुए हैं। राम, रावण, शनि, कश्यप ऋषि आदि इनके भक्त हुए है। शिव सभी को समान दृष्टि से देखते है इसलिये उन्हें महादेव कहा जाता है। शिव के कुछ प्रचलित नाम, महाकाल, आदिदेव, किरात, शंकर, चन्द्रशेखर, जटाधारी, नागनाथ, मृत्युंजय [मृत्यु पर विजयी], त्रयम्बक, महेश, विश्वेश, महारुद्र, विषधर, नीलकण्ठ, महाशिव, उमापति [पार्वती के पति], काल भैरव, भूतनाथ, त्रिलोचन [तीन नयन वाले], शशिभूषण आदि।

भगवान शिव को रूद्र नाम से जाना जाता है रुद्र का अर्थ है रुत् दूर करने वाला अर्थात दुखों को हरने वाला अतः भगवान शिव का स्वरूप कल्याण कारक है। रुद्राष्टाध्यायी के पांचवे अध्याय में भगवान शिव के अनेक रूप वर्णित हैं रूद्र देवता को स्थावर जंगम सर्व पदार्थ रूप, सर्व जाति मनुष्य देव पशु वनस्पति रूप मानकर के सर्व अंतर्यामी भाव एवं सर्वोत्तम भाव सिद्ध किया गया है इस भाव का ज्ञाता होकर साधक अद्वैतनिष्ठ बनता है। संदर्भ रुद्राष्टाध्यायी पृष्ठ संख्या 10 गीता प्रेस गोरखपुर।

रामायण में भगवान राम के कथन अनुसार शिव और राम में अंतर जानने वाला कभी भी भगवान शिव का या भगवान राम का प्रिय नहीं हो सकता। शुक्ल यजुर्वेद संहिता के अंतर्गत रुद्र अष्टाध्यायी के अनुसार सूर्य, इंद्र, विराट पुरुष, हरे वृक्ष, अन्न, जल, वायु एवं मनुष्य के कल्याण के सभी हेतु भगवान शिव के ही स्वरूप हैं। भगवान सूर्य के रूप में वे शिव भगवान मनुष्य के कर्मों को भली-भांति निरीक्षण कर उन्हें वैसा ही फल देते हैं। आशय यह है कि संपूर्ण सृष्टि शिवमय है। मनुष्य अपने-अपने कर्मानुसार फल पाते हैं अर्थात स्वस्थ बुद्धि वालों को वृष्टि रूपी जल, अन्न, धन, आरोग्य, सुख आदि भगवान शिव प्रदान करते हैं और दुर्बुद्धि वालों के लिए व्याधि, दुख एवं मृत्यु आदि का विधान भी शिवजी करते हैं।

शिव स्वरूप सूर्य

जिस प्रकार इस ब्रह्माण्ड का ना कोई अंत है, न कोई छोर और न ही कोई शूरुआत, उसी प्रकार शिव अनादि है सम्पूर्ण ब्रह्मांड शिव के अंदर समाया हुआ है जब कुछ नहीं था तब भी शिव थे जब कुछ न होगा तब भी शिव ही होंगे। शिव को महाकाल कहा जाता है, अर्थात समय। शिव अपने इस स्वरूप द्वारा पूर्ण सृष्टि का भरण-पोषण करते हैं। इसी स्वरूप द्वारा परमात्मा ने अपने ओज व उष्णता की शक्ति से सभी ग्रहों को एकत्रित कर रखा है। परमात्मा का यह स्वरूप अत्यंत ही कल्याणकारी माना जाता है क्योंकि पूर्ण सृष्टि का आधार इसी स्वरूप पर टिका हुआ है।पवित्र श्री देवी भागवत महापुराण में भगवान शंकर को तमोगुण बताया गया है इसका प्रमाण श्री देवी भागवत महापुराण अध्याय 5, स्कंद 3, पृष्ठ 121 में दिया गया है।

शिव पुराण

पवित्र शिव पुराण एक लेख के अनुसार, कैलाशपति शिव जी ने देवी आदिशक्ति और सदाशिव से कहे है कि हे मात! ब्रह्मा तुम्हारी सन्तान है तथा विष्णु की उत्पति भी आप से हुई है तो उनके बाद उत्पन्न होने वाला में भी आपकी सन्तान हुआ।

ब्रह्मा और विष्णु सदाशिव के आधे अवतार है, परंतु कैलाशपति शिव “सदाशिव” के पूर्ण अवतार है। जैसे कृष्ण विष्णु के पूर्ण अवतार है उसी प्रकार कैलाशपति शिव “ओमकार सदाशिव” के पूर्ण अवतार है। सदाशिव और शिव दिखने में, वेषभूषा और गुण में बिल्कुल समान है। इसी प्रकार देवी सरस्वती, लक्ष्मी और पार्वती (दुर्गा) आदिशक्ति की अवतार है।

शिव पुराण के लेख के अनुसार सदाशिव जी कहे है कि जो मुझमे और कैलाशपति शिव में भेद करेगा या हम दोनों को अलग मानेगा वो नर्क में गिरेगा । या फिर शिव और विष्णु में जो भेद करेगा वो नर्क में गिरेगा। वास्तव में मुझमे, ब्रह्मा, विष्णु और कैलाशपति शिव कोई भेद नहीं हम एक ही है। परंतु सृष्टि के कार्य के लिए हम अलग अलग रूप लेते है ।

शिव स्वरूप शंकर जी

पृथ्वी पर बीते हुए इतिहास में सतयुग से कलयुग तक, एक ही मानव शरीर एैसा है जिसके ललाट पर ज्योति है। इसी स्वरूप द्वारा जीवन व्यतीत कर परमात्मा ने मानव को वेदों का ज्ञान प्रदान किया है जो मानव के लिए अत्यंत ही कल्याणकारी साबित हुआ है। वेदो शिवम शिवो वेदम।। परमात्मा शिव के इसी स्वरूप द्वारा मानव शरीर को रुद्र से शिव बनने का ज्ञान प्राप्त होता है।

शिवलिंग

शिव के नंदी गण

  1. नंदी
  2. भृंगी
  3. रिटी
  4. टुंडी
  5. श्रृंगी
  6. नन्दिकेश्वर
  7. बेताल
  8. पिशाच
  9. तोतला
  10. भूतनाथ

शिव की अष्टमूर्ति

1. पृथ्वीमूर्ति – शर्व

2. जलमूर्ति – भव

3. तेजमूर्ति – रूद्र

4. वायुमूर्ति – उग्र

5. आकाशमूर्ति – भीम

6. अग्निमूर्ति – पशुपति

7. सूर्यमूर्ति – ईशान

8. चन्द्रमूर्ति – महादेव

व्यक्तित्व

शिव में परस्पर विरोधी भावों का सामंजस्य देखने को मिलता है। शिव के मस्तक पर एक ओर चंद्र है, तो दूसरी ओर महाविषधर सर्प भी उनके गले का हार है। वे अर्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। गृहस्थ होते हुए भी श्मशानवासी, वीतरागी हैं। सौम्य, आशुतोष होते हुए भी भयंकर रुद्र हैं। शिव परिवार भी इससे अछूता नहीं हैं। उनके परिवार में भूत-प्रेत, नंदी, सिंह, सर्प, मयूर व मूषक सभी का समभाव देखने को मिलता है। वे स्वयं द्वंद्वों से रहित सह-अस्तित्व के महान विचार का परिचायक हैं। ऐसे महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है शिवरात्रि।[7]

पूजन

शिवरात्रि की पूजा रात्रि के चारों प्रहर में करनी चाहिए।] शिव को बिल्वपत्र, पुष्प, चन्दन का स्नान प्रिय हैं। इनकी पूजा के लिये दूध, दही, घी, चीनी, शहद इन पांच अमृत जिसे पञ्चामृत कहा जाता है, से की जाती है। शिव का त्रिशूल और डमरू की ध्वनि मंगल, गुरु से संबंधित हैं। चंद्रमा उनके मस्तक पर विराजमान होकर अपनी कांति से अनंताकाश में जटाधारी महामृत्युंजय को प्रसन्न रखता है तो बुधादि ग्रह समभाव में सहायक बनते हैं। महामृत्युंजय मंत्र शिव आराधना का महामंत्र है। सावन सोमवार व्रत को काफी फलदायी बताया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को करने से भक्तों की सभी इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है।  महाशिवरात्रि का व्रत अपनी मनोकामना पूर्ति के लिए करते हैं।

ज्योतिर्लिंगस्थान
पशुपतिनाथनेपाल की राजधानी काठमांडू
सोमनाथसोमनाथ मंदिर, सौराष्ट्र क्षेत्र, गुजरात
महाकालेश्वरश्री महाकाल, महाकालेश्वर, उज्जयिनी (उज्जैन)
ॐकारेश्वरॐकारेश्वर अथवा ममलेश्वर, ॐकारेश्वर
केदारनाथकेदारनाथ मन्दिर, रुद्रप्रयाग, उत्तराखण्ड
भीमाशंकरभीमाशंकर मंदिर, निकट पुणे, महाराष्ट्र
विश्वनाथकाशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
त्र्यम्बकेश्वर मन्दिरत्र्यम्बकेश्वर ज्योतिर्लिंग मन्दिर, नासिक, महाराष्ट्र
रामेश्वरमरामेश्वरम मंदिर, रामनाथपुरम, तमिल नाडु
घृष्णेश्वरघृष्णेश्वर मन्दिर, वेरुळ, औरंगाबाद, महाराष्ट्र
बैद्यनाथदेवघर झारखण्ड
नागेश्वरऔंढा नागनाथ महाराष्ट्र नागेश्वर मन्दिर, द्वारका, गुजरात
श्रीशैलश्रीमल्लिकार्जुन, श्रीशैलम (श्री सैलम), आंध्र प्रदेश

अनेक नाम

मुख्य लेख: शिव सहस्रनाम

हिन्दू धर्म में भगवान शिव को अनेक नामों से पुकारा जाता है

  • रूद्र – रूद्र से अभिप्राय जो दुखों का निर्माण व नाश करता है।
  • पशुपतिनाथ – भगवान शिव को पशुपति इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह पशु पक्षियों व जीवआत्माओं के स्वामी हैं
  • अर्धनारीश्वर – शिव और शक्ति के मिलन से अर्धनारीश्वर नाम प्रचलित हुआ।
  • महादेव – महादेव का अर्थ है महान ईश्वरीय शक्ति।
  • भोलेनाथ – भोलेनाथ का अर्थ है कोमल हृदय, दयालु व आसानी से माफ करने वालों में अग्रणी। यह विश्वास किया जाता है कि भगवान शंकर आसानी से किसी पर भी प्रसन्न हो जाते हैं।
  • लिंगम – पूरे ब्रह्मांड का प्रतीक है।
  • नटराज – नटराज को नृत्य का देवता मानते है क्योंकि भगवान शिव तांडव नृत्य के प्रेमी है। “शिव” शब्द का अर्थ “शुभ, स्वाभिमानिक, अनुग्रहशील, सौम्य, दयालु, उदार, मैत्रीपूर्ण” होता है। लोक व्युत्पत्ति में “शिव” की जड़ “शि” है जिसका अर्थ है जिन में सभी चीजें व्यापक है और “वा” इसका अर्थ है “अनुग्रह के अवतार”। ऋग वेद में शिव शब्द एक विशेषण के रूप में प्रयोग किया जाता है, रुद्रा सहित कई ऋग्वेदिक देवताओं के लिए एक विशेषण के रूप में। शिव शब्द ने “मुक्ति, अंतिम मुक्ति” और “शुभ व्यक्ति” का भी अर्थ दिया है।  इस विशेषण का प्रयोग विशेष रूप से साहित्य के वैदिक परतों में कई देवताओं को संबोधित करने हेतु किया गया है। यह शब्द वैदिक रुद्रा-शिव से महाकाव्यों और पुराणों में नाम शिव के रूप में विकसित हुआ, एक शुभ देवता के रूप में, जो “निर्माता, प्रजनक और संहारक” होता है।
  • महाकाल अर्थात समय के देवता, यह भगवान शिव का एक रूप है जो ब्राह्मण के समय आयामो को नियंत्रित करते है।

शिवरात्रि

प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कहलाती है, लेकिन फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी महाशिवरात्रि कही गई है। इस दिन शिवोपासना भुक्ति एवं मुक्ति दोनों देने वाली मानी गई है, क्योंकि इसी दिन ब्रह्मा विष्णु ने शिवलिंग की पूजा सृष्टि में पहली बार की थी और महाशिवरात्रि के ही दिन भगवान शिव और माता पार्वती की शादि हुई थी। इसलिए भगवान शिव ने इस दिन को वरदान दिया था और यह दिन भगवान शिव का बहुत ही प्रिय दिन है। महाशिवरात्रि का।

माघकृष्ण चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। ॥ शिवलिंगतयोद्रूत: कोटिसूर्यसमप्रभ॥

भगवान शिव अर्धरात्रि में शिवलिंग रूप में प्रकट हुए थे, इसलिए शिवरात्रि व्रत में अर्धरात्रि में रहने वाली चतुर्दशी ग्रहण करनी चाहिए। कुछ विद्वान प्रदोष व्यापिनी त्रयोदशी विद्धा चतुर्दशी शिवरात्रि व्रत में ग्रहण करते हैं। नारद संहिता में आया है कि जिस तिथि को अर्धरात्रि में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी हो, उस दिन शिवरात्रि करने से अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। जिस दिन प्रदोष व अर्धरात्रि में चतुर्दशी हो, वह अति पुण्यदायिनी कही गई है।

ईशान संहिता के अनुसार इस दिन ज्योतिर्लिग का प्रादुर्भाव हुआ, जिससे शक्तिस्वरूपा पार्वती ने मानवी सृष्टि का मार्ग प्रशस्त किया। फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को ही महाशिवरात्रि मनाने के पीछे कारण है कि इस दिन क्षीण चंद्रमा के माध्यम से पृथ्वी पर अलौकिक लयात्मक शक्तियां आती हैं, जो जीवनीशक्ति में वृद्धि करती हैं। यद्यपि चतुर्दशी का चंद्रमा क्षीण रहता है, लेकिन शिवस्वरूप महामृत्युंजय दिव्यपुंज महाकाल आसुरी शक्तियों का नाश कर देते हैं। मारक या अनिष्ट की आशंका में महामृत्युंजय शिव की आराधना ग्रहयोगों के आधार पर बताई जाती है। बारह राशियां, बारह ज्योतिर्लिगों की आराधना या दर्शन मात्र से सकारात्मक फलदायिनी हो जाती है।

यह काल वसंत ऋतु के वैभव के प्रकाशन का काल है। ऋतु परिवर्तन के साथ मन भी उल्लास व उमंगों से भरा होता है। यही काल कामदेव के विकास का है और कामजनित भावनाओं पर अंकुश भगवद् आराधना से ही संभव हो सकता है। भगवान शिव तो स्वयं काम निहंता हैं, अत: इस समय उनकी आराधना ही सर्वश्रेष्ठ है।

महाशिवरात्रि

महाशिवरात्रि हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। भगवान शिव का यह प्रमुख पर्व फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को शिवरात्रि पर्व मनाया जाता है। माता पार्वती की पति रूप के महादेव शिव को पाने के लिये की गई तपस्या का फल महाशिवरात्रि है। यह शिव और शक्ति की मिलन की रात है। आध्यात्मिक रूप से इसे प्रकृति और पुरुष के मिलन की रात के रूप में बताया जाता है। इसी दिन माता पार्वती और शिव विवाह के पवित्र सूत्र में बंधे। शादी में जिन 7 वचनों का वादा वर-वधु आपस में करते है उसका कारण शिव पार्वती विवाह है। महादेव शिव का जन्म उलेखन कुछ ही ग्रंथों में मिलता है। परंतु शिव अजन्मा है उनका जन्म या अवतार नहीं हुआ। महाशिवरात्रि पर्व भारत वर्ष में काफी धूम-धाम से मनाया जाता है।

शिव महापुराण

शिव महापुराण में देवो के देव महादेव अर्थात् महाकाल के बारे में विस्तार से बताया गया है शिव पुराण में शिव लीलाओ और उनके जीवन की सभी घटनाओ के बारे में उल्लेख किया गया है। शिव पुराण में प्रमुख रूप से 12 सहिंताये है। महादेव को एक बार इस दुनिया को बचाने के लिए विष का पान करना पड़ा था, और उस महाविनाशक विष को अपने कंठ में धारण करना पड़ा था। इसी वजह से उन्हें नीलकंठ के नाम से भी जाना जाता है।

कैलाश मानसरोवर

कुछ कथाओं के अनुसार कैलाश सरोवर को शिव का निवास स्थान माना जाता है।

भगवान शिव के अनेक अवतार है प्रलयकाल के समय इनका अवतार निराकार ब्रह्मम जिसे कि उत्तराखण्ड में निरंकार देवता के नाम से भी पूजा जाता है एक ऐसा हि अन्य अवतार है भैरवनाथ अवतार जिसे भैरव या कालभैरव के नाम से पूजा जाता है।

हिन्दू धर्म 

एक धर्म है जिसकी उत्पत्ति मानव की उत्पत्ति से भी पहले से है।  कुछ लोग हिन्दू धर्म को भारत की विभिन्न संस्कृतियों एवं परम्पराओं का सम्मिश्रण मानते हैं जिसका कोई संस्थापक नहीं है

यह धर्म अपने अन्दर कई अलग-अलग उपासना पद्धतियाँ, मत, सम्प्रदाय और दर्शन समेटे हुए हैं। हालाँकि इसमें कई देवी-देवताओं की पूजा की जाती है, लेकिन वास्तव में यह एकेश्वरवादी धर्म है।] इण्डोनेशिया में इस धर्म का औपचारिक नाम “हिन्दु आगम” है। हिन्दू केवल एक धर्म या सम्प्रदाय ही नहीं है अपितु जीवन जीने की एक पद्धति है।

नामोत्पत्ति

भारतवर्ष को प्राचीन ऋषियों ने “हिन्दुस्थान” नाम दिया था, जिसका अपभ्रंश “हिन्दुस्तान” है। बृहस्पति आगम के अनुसार:

हिमालयात् समारभ्य यावत् इन्दु सरोवरम्।

तं देवनिर्मितं देशं हिन्दुस्थानं प्रचक्षते॥

अर्थात् हिमालय से प्रारम्भ होकर इन्दु सरोवर (हिन्द महासागर) तक यह देव निर्मित देश हिन्दुस्थान कहलाता है।

अन्य मान्यताओं के अनुसार “हिन्दू” शब्द “सिन्धु” से बना माना जाता है। संस्कृत में सिन्धु शब्द के दो मुख्य अर्थ हैं – पहला, सिन्धु नदी जो मानसरोवर के पास से निकल कर लद्दाख़ और पाकिस्तान से बहती हुई समुद्र में मिलती है, दूसरा – कोई समुद्र या जलराशि। ऋग्वेद की नदीस्तुति के अनुसार वे सात नदियाँ थीं : सिन्धु, सरस्वती, वितस्ता (झेलम), शुतुद्रि (सतलुज), विपाशा (व्यास), परुषिणी (रावी) और अस्किनी (चेनाब)। एक अन्य विचार के अनुसार हिमालय के प्रथम अक्षर “हि” एवं इन्दु का अन्तिम अक्षर “न्दु”, इन दोनों अक्षरों को मिलाकर शब्द बना “हिन्दु” और यह भू-भाग हिन्दुस्थान कहलाया। हिन्दू शब्द उस समय धर्म के बजाय राष्ट्रीयता के रूप में प्रयुक्त होता था। चूँकि उस समय भारत में केवल वैदिक धर्म को ही मानने वाले लोग थे, बल्कि तब तक अन्य किसी धर्म का उदय नहीं हुआ था इसलिए “हिन्दू” शब्द सभी भारतीयों के लिए प्रयुक्त होता था। भारत में केवल वैदिक धर्मावलम्बियों (हिन्दुओं) के बसने के कारण कालान्तर में विदेशियों ने इस शब्द को धर्म के सन्दर्भ में प्रयोग करना शुरु कर दिया।

आम तौर पर हिन्दू शब्द को अनेक विश्लेषकों ने विदेशियों द्वारा दिया गया शब्द माना है। इस धारणा के अनुसार हिन्दू एक फ़ारसी शब्द है। हिन्दू धर्म को सनातन धर्म या वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म भी कहा जाता है। ऋग्वेद में सप्त सिन्धु का उल्लेख मिलता है – वो भूमि जहाँ आर्य सबसे पहले बसे थे। भाषाविदों के अनुसार हिन्द आर्य भाषाओं की “स्” ध्वनि (संस्कृत का व्यंजन “स्”) ईरानी भाषाओं की “ह्” ध्वनि में बदल जाती है। इसलिए सप्त सिन्धु अवेस्तन भाषा (पारसियों की धर्मभाषा) में जाकर हफ्त हिन्दु में परिवर्तित हो गया (अवेस्ता: वेन्दीदाद, फ़र्गर्द 1.18)। इसके बाद ईरानियों ने सिन्धु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिन्दु नाम दिया। जब अरब से मुस्लिम हमलावर भारत में आए, तो उन्होंने भारत के मूल धर्मावलम्बियों को हिन्दू कहना शुरू कर दिया। चारों वेदों में, पुराणों में, महाभारत में, स्मृतियों में इस धर्म को हिन्दु धर्म नहीं कहा है, वैदिक सनातन वर्णाश्रम धर्म कहा है।

दर्शन

  • हिन्‍दुत्‍व के प्रमुख तत्त्व निम्नलिखित हैं

:गोषु भक्तिर्भवेद्यस्य प्रणवे च दृढ़ा मतिः। :पुनर्जन्मनि विश्वासः स वै हिन्दुरिति स्मृतः।।

अर्थात– गोमाता में जिसकी भक्ति हो, प्रणव जिसका पूज्य मन्त्र हो, पुनर्जन्म में जिसका विश्वास हो–वही हिन्दू है।

  • मेरुतन्त्र ३३ प्रकरण के अनुसार ‘ हीनं दूषयति स हिन्दु ‘।
  • लोकमान्य तिलक के अनुसार-

असिन्धोः सिन्धुपर्यन्ता यस्य भारतभूमिका। पितृभूः पुण्यभूश्चैव स वै हिन्दुरिति स्मृतः।। अर्थात्- सिन्धु नदी के उद्गम-स्थान से लेकर सिन्धु (हिन्द महासागर) तक सम्पूर्ण भारत भूमि जिसकी पितृभू (अथवा मातृ भूमि) तथा पुण्यभू (पवित्र भूमि) है, (और उसका धर्म हिन्दुत्व है) वह हिन्दु कहलाता है।

उपनिषद

हिन्दू धर्मग्रन्थ उपनिषदों के अनुसार ब्रह्म ही परम तत्त्व है (इसे त्रिमूर्ति के देवता ब्रह्मा से भ्रमित न करें)।

ईश्वर

ब्रह्म और ईश्वर में क्या सम्बन्ध है, इसमें हिन्दू दर्शनों की सोच अलग अलग है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार जब मानव ब्रह्म को अपने मन से जानने की कोशिश करता है, तब ब्रह्म ईश्वर हो जाता है, क्योंकि मानव माया नाम की एक जादुई शक्ति के वश में रहता है। अर्थात जब माया के आइने में ब्रह्म की छाया पड़ती है, तो ब्रह्म का प्रतिबिम्ब हमें ईश्वर के रूप में दिखायी पड़ता है। ईश्वर अपनी इसी जादुई शक्ति “माया” से विश्व की सृष्टि करता है और उस पर शासन करता है। इस स्थिति में हालाँकि ईश्वर एक नकारात्मक शक्ति के साथ है, लेकिन माया उसपर अपना कुप्रभाव नहीं डाल पाती है, जैसे एक जादूगर अपने ही जादू से अचंम्भित नहीं होता है। माया ईश्वर की दासी है, परन्तु हम जीवों की स्वामिनी है। वैसे तो ईश्वर रूपहीन है, पर माया की वजह से वो हमें कई देवताओं के रूप में प्रतीत हो सकता है। इसके विपरीत वैष्णव मतों और दर्शनों में माना जाता है कि ईश्वर और ब्रह्म में कोई फ़र्क नहीं है–और विष्णु (या कृष्ण) ही ईश्वर हैं। न्याय, वैषेशिक और योग दर्शनों के अनुसार ईश्वर एक परम और सर्वोच्च आत्मा है, जो चैतन्य से युक्त है और विश्व का सृष्टा और शासक है।

जो भी हो, बाकी बातें सभी हिन्दू मानते हैं : ईश्वर एक और केवल एक है। वो विश्वव्यापी और विश्वातीत दोनो है। बेशक, ईश्वर सगुण है। वो स्वयंभू और विश्व का कारण (सृष्टा) है। वो पूजा और उपासना का विषय है। वो पूर्ण, अनन्त, सनातन, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी है। वो राग-द्वेष से परे है, पर अपने भक्तों से प्रेम करता है और उनपर कृपा करता है। उसकी इच्छा के बिना इस दुनिया में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। वो विश्व की नैतिक व्यवस्था को कायम रखता है और जीवों को उनके कर्मों के अनुसार सुख-दुख प्रदान करता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार विश्व में नैतिक पतन होने पर वो समय-समय पर धरती पर अवतार (जैसे कृष्ण) रूप ले कर आता है। ईश्वर के अन्य नाम हैं : परमेश्वर, परमात्मा, विधाता, भगवान (जो हिन्दी में सबसे ज़्यादा प्रचलित है)। इसी ईश्वर को मुसल्मान (अरबी में) अल्लाह, (फ़ारसी में) ख़ुदा, ईसाई (अंग्रेज़ी में) गॉड और यहूदी (इब्रानी में) याह्वेह कहते हैं।

देवी और देवता

हिन्दू धर्म में कई देवता हैं, जिनको अंग्रेज़ी में ग़लत रूप से “Gods” कहा जाता है। ये देवता कौन हैं, इस बारे में तीन मत हो सकते हैं :

  • अद्वैत वेदान्त, भगवद गीता, वेद, उपनिषद्, आदि के मुताबिक सभी देवी-देवता एक ही परमेश्वर के विभिन्न रूप हैं (ईश्वर स्वयं ही ब्रह्म का रूप है)। निराकार परमेश्वर की भक्ति करने के लिये भक्त अपने मन में भगवान को किसी प्रिय रूप में देखता है। ऋग्वेद के अनुसार, “एकं सत विप्रा बहुधा वदन्ति”, अर्थात एक ही परमसत्य को विद्वान कई नामों से बुलाते हैं।
  • योग, न्याय, वैशेषिक, अधिकांश शैव और वैष्णव मतों के अनुसार देवगण वो परालौकिक शक्तियां हैं जो ईश्वर के अधीन हैं मगर मानवों के भीतर मन पर शासन करती हैं।  योग दर्शन के अनुसार ईश्वर ही प्रजापति औत इन्द्र जैसे देवताओं और अंगीरा जैसे ऋषियों के पिता और गुरु हैं।
  • मीमांसा के अनुसार सभी देवी-देवता स्वतन्त्र सत्ता रखते हैं और उनके ऊपर कोई एक ईश्वर नहीं है। इच्छित कर्म करने के लिये इनमें से एक या कई देवताओं को कर्मकाण्ड और पूजा द्वारा प्रसन्न करना ज़रूरी है। इस प्रकार का मत शुद्ध रूप से बहु-ईश्वरवादी कहा जा सकता है।

एक बात और कही जा सकती है कि ज़्यादातर वैष्णव और शैव दर्शन पहले दो विचारों को सम्मिलित रूप से मानते हैं। जैसे, कृष्ण को परमेश्वर माना जाता है जिनके अधीन बाकी सभी देवी-देवता हैं और साथ ही साथ, सभी देवी-देवताओं को कृष्ण का ही रूप माना जाता है। तीसरे मत को धर्मग्रन्थ मान्यता नहीं देते।

जो भी सोच हो, ये देवता रंग-बिरंगी हिन्दू संस्कृति के अभिन्न अंग हैं। वैदिक काल के मुख्य देव थे– इन्द्र, अग्नि, सोम, वरुण, रूद्र, विष्णु, प्रजापति, सविता (पुरुष देव) और देवियाँ– सरस्वती, ऊषा, पृथ्वी, इत्यादि (कुल 33)। बाद के हिन्दू धर्म में नये देवी देवता आये (कई अवतार के रूप में)– गणेश, राम, कृष्ण, हनुमान, कार्तिकेय, सूर्य-चन्द्र और ग्रह और देवियाँ (जिनको माता की उपाधि दी जाती है) जैसे– दुर्गा, पार्वती, लक्ष्मी, शीतला, सीता, काली, इत्यादि। ये सभी देवता पुराणों में उल्लिखित हैं और उनकी कुल संख्या 33 कोटी बतायी जाती है। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु और शिव साधारण देव नहीं, बल्कि महादेव हैं और त्रिमूर्ति के सदस्य हैं। इन सबके अलावा हिन्दू धर्म में गाय को भी माता के रूप में पूजा जाता है। यह माना जाता है कि गाय में सम्पूर्ण 33 कोटि देवी देवता वास करते हैं। उल्लेखनीय है कि कोटि का यहाँ अर्थ प्रकार से है ना कि करोड़(संख्या) से हैं।

हिंदू धर्म के पांच प्रमुख देवता

हिंदू धर्म मान्यताओं में पांच प्रमुख देवता पूजनीय है। ये एक ईश्वर के ही अलग-अलग रूप और शक्तियाँ हैं।

  • सूर्य – स्वास्थ्य, प्रतिष्ठा व सफलता।
  • विष्णु – शांति व वैभव।
  • शिव – ज्ञान व विद्या।
  • शक्ति – शक्ति व सुरक्षा।
  • गणेश – बुद्धि व विवेक।

देवताओं के गुरु

देवताओं के गुरु बृहस्पति माने गए हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार वे महर्षि अंगिरा के पुत्र थे। भगवान शिव के कठिन तप से उन्होंने देवगुरु का पद पाया। उन्होंने अपने ज्ञान बल व मंत्र शक्तियों से देवताओं की रक्षा की। शिव कृपा से ये गुरु ग्रह के रूप में भी पूजनीय हैं। गुरुवार, गुरु बृहस्पतिदेव की उपासना का विशेष दिन है।

दानवों के गुरु

दानवों के गुरु शुक्राचार्य माने जाते हैं। ब्रह्मदेव के पुत्र महर्षि भृगु इनके पिता थे। शुक्राचार्य ने ही शिव की कठोर तपस्या कर मृत संजीवनी विद्या प्राप्त की, जिससे वह मृत शरीर में फिर से प्राण फूंक देते थे। ब्रह्मदेव की कृपा से यह शुक्र ग्रह के रूप में पूजनीय हैं। शुक्रवार शुक्र देव की उपासना का ही विशेष दिन है।

आत्मा

हिन्दू धर्म के अनुसार हर चेतन प्राणी में एक अभौतिक आत्मा होती है, जो सनातन, अव्यक्त, अप्रमेय और विकार रहित है। हिन्दू धर्म के मुताबिक मनुष्य में ही नहीं, बल्कि हर पशु और पेड़-पौधे, यानि कि हर जीव में आत्मा होती है। भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा आत्मा के लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं:

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नाय भूत्वा भविता वा न भूय:।

अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो, न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ २-२०॥

(यह आत्मा किसी काल में भी न तो जन्मता है और न तो मरता ही है तथा न ही यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है; क्योंकि यह अजन्मा, नित्य सनातन, पुरातन है; शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मारा जाता।)

किसी भी जन्म में अपनी आज़ादी से किये गये कर्मों के मुताबिक आत्मा अगला शरीर धारण करती है। जन्म-मरण के चक्र में आत्मा स्वयं निर्लिप्त रह्ते हुए अगला शरीर धारण करती है। अच्छे कर्मफल के प्रभाव से मनुष्य कुलीन घर अथवा योनि में जन्म ले सकता है जबकि बुरे कर्म करने पर निकृष्ट योनि में जन्म लेना पड़ता है। जन्म मरण का सांसारिक चक्र तभी ख़त्म होता है जब व्यक्ति को मोक्ष मिलता है। उसके बाद आत्मा अपने वास्तविक सत्-चित्-आनन्द स्वभाव को सदा के लिये पा लेती है। मानव योनि ही अकेला ऐसा जन्म है जिसमें मनुष्य के कर्म, पाप और पुण्यमय फल देते हैं और सुकर्म के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मुम्किन है। आत्मा और पुनर्जन्म के प्रति यही धारणाएँ बौद्ध धर्म और सिख धर्म का भी आधार है।

धर्मग्रन्थ

मुख्य लेख: हिंदू धर्म के ग्रंथ

हिंदू धर्म के पवित्र ग्रन्थों को दो भागों में बाँटा गया है- श्रुति और स्मृति। श्रुति हिन्दू धर्म के सर्वोच्च ग्रन्थ हैं, जो पूर्णत: अपरिवर्तनीय हैं, अर्थात् किसी भी युग में इनमे कोई बदलाव नहीं किया जा सकता। स्मृति ग्रन्थों में देश-कालानुसार बदलाव हो सकता है। श्रुति के अन्तर्गत वेद : ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद ब्रह्म सूत्र व उपनिषद् आते हैं। वेद श्रुति इसलिये कहे जाते हैं क्योंकि हिन्दुओं का मानना है कि इन वेदों को परमात्मा ने ऋषियों को सुनाया था, जब वे गहरे ध्यान में थे। वेदों को श्रवण परम्परा के अनुसार गुरू द्वारा शिष्यों को दिया जाता था। हर वेद में चार भाग हैं- संहिता—मन्त्र भाग, ब्राह्मण-ग्रन्थ—गद्य भाग, जिसमें कर्मकाण्ड समझाये गये हैं, आरण्यक—इनमें अन्य गूढ बातें समझायी गयी हैं, उपनिषद्—इनमें ब्रह्म, आत्मा और इनके सम्बन्ध के बारे में विवेचना की गयी है। अगर श्रुति और स्मृति में कोई विवाद होता है तो श्रुति ही मान्य होगी। श्रुति को छोड़कर अन्य सभी हिन्दू धर्मग्रन्थ स्मृति कहे जाते हैं, क्योंकि इनमें वो कहानियाँ हैं जिनको लोगों ने पीढ़ी दर पीढ़ी याद किया और बाद में लिखा। सभी स्मृति ग्रन्थ वेदों की प्रशंसा करते हैं। इनको वेदों से निचला स्तर प्राप्त है, पर ये ज़्यादा आसान हैं और अधिकांश हिन्दुओं द्वारा पढ़े जाते हैं (बहुत ही कम हिन्दू वेद पढ़े होते हैं)। प्रमुख स्मृति ग्रन्थ हैं:- इतिहास–रामायण और महाभारत, भगवद गीता, पुराण–(18), मनुस्मृति, धर्मशास्त्र और धर्मसूत्र, आगम शास्त्र। भारतीय दर्शन के ६ प्रमुख अंग हैं- सांख्य दर्शन, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदान्त।

देव और दानवों के माता-पिता का नाम

हिंदू धर्मग्रंथों के मुताबिक देवता धर्म के तो दानव अधर्म के प्रतीक हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि पौराणिक मान्यताओं में देव-दानवों को एक ही पिता, किंतु अलग-अलग माताओं की संतान बताया गया है। इसके मुताबिक देव-दानवों के पिता ऋषि कश्यप हैं। वहीं, देवताओं की माता का नाम अदिति और दानवों की माता का नाम दिति है।

हिन्दू संस्कृति

वैदिक काल और यज्ञ

प्राचीन काल में लोग वैदिक मंत्रों और अग्नि-यज्ञ से कई देवताओं की पूजा करते थे। आर्य देवताओं की कोई मूर्ति

 या मन्दिर नहीं बनाते थे। प्रमुख देवता थे : देवराज इन्द्र, अग्नि, सोम और वरुण। उनके लिये वैदिक मन्त्र पढ़े जाते थे और अग्नि में घी, दूध, दही, जौ, इत्यागि की आहुति दी जाती थी।

तीर्थ एवं तीर्थ यात्रा

भारत एक विशाल देश है, लेकिन उसकी विशालता और महानता को हम तब तक नहीं जान सकते, जब तक कि उसे देखें नहीं। इस ओर वैसे अनेक महापुरूषों का ध्यान गया, लेकिन आज से बारह सौ वर्ष पहले आदिगुरू शंकराचार्य ने इसके लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होनें चारों दिशाओं में भारत के छोरों पर, चार पीठ (मठ) स्थापित उत्तर में बदरीनाथ के निकट ज्योतिपीठ, दक्षिण में रामेश्वरम् के निकट श्रृंगेरी पीठ, पूर्व में जगन्नाथपुरी में गोवर्धन पीठ और पश्चिम में द्वारिकापीठ। तीर्थों के प्रति हमारे देशवासियों में बड़ी भक्ति भावना है। इसलिए शंकराचार्य ने इन पीठो की स्थापना करके देशवासियों को पूरे भारत के दर्शन करने का सहज अवसर दे दिया। ये चारों तीर्थ चार धाम कहलाते है। लोगों की मान्यता है कि जो इन चारों धाम की यात्रा कर लेता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है।

मूर्तिपूजा

ज्यादातर हिन्दू भगवान की मूर्तियों द्वारा पूजा करते हैं। उनके लिये मूर्ति एक आसान सा साधन है, जिसमें कि एक ही निराकार ईश्वर को किसी भी मनचाहे सुन्दर रूप में देखा जा सकता है। हिन्दू लोग वास्तव में पत्थर और लोहे की पूजा नहीं करते, जैसा कि कुछ लोग समझते हैं। मूर्तियाँ हिन्दुओं के लिये ईश्वर की भक्ति करने के लिये एक साधन मात्र हैं।

मंदिर

हिन्दुओं के उपासना स्थलों को मन्दिर कहते हैं। प्राचीन वैदिक काल में मन्दिर नहीं होते थे। तब उपासना अग्नि के स्थान पर होती थी जिसमें एक सोने की मूर्ति ईश्वर के प्रतीक के रूप में स्थापित की जाती थी। एक नज़रिये के मुताबिक बौद्ध और जैन धर्मों द्वारा बुद्ध और महावीर की मूर्तियों और मन्दिरों द्वारा पूजा करने की वजह से हिन्दू भी उनसे प्रभावित होकर मन्दिर बनाने लगे। हर मन्दिर में एक या अधिक देवताओं की उपासना होती है। गर्भगृह में इष्टदेव की मूर्ति प्रतिष्ठित होती है। मन्दिर प्राचीन और मध्ययुगीन भारतीय कला के श्रेष्ठतम प्रतीक हैं। कई मन्दिरों में हर साल लाखों तीर्थयात्री आते हैं।

अधिकाँश हिन्दू चार शंकराचार्यों को (जो ज्योतिर्मठ, द्वारिका, शृंगेरी और पुरी के मठों के मठाधीश होते हैं) हिन्दू धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं।

त्यौहार

नववर्ष – द्वादशमासै: संवत्सर:।’ ऐसा वेद वचन है, इसलिए यह जगत्मान्य हुआ। सर्व वर्षारंभों में अधिक योग्य प्रारंभदिन चैत्र शुक्ल प्रतिपदा है। इसे पूरे भारत में अलग-अलग नाम से सभी हिन्दू धूम-धाम से मनाते हैं। यद्यपि प्राचीनकालमे माघशुक्ल प्रतिपदासे शिशिर ऋत्वारम्भ उत्तरायणारम्भ और नववर्षाम्भ तिनौं एक साथ माना जाता था।

हिन्दू धर्म में सूर्योपासना के लिए प्रसिद्ध पर्व है छठ। मूलत: सूर्य षष्ठी व्रत होने के कारण इसे छठ कहा गया है। यह पर्व वर्ष में दो बार मनाया जाता है, किन्तु काल क्रम में अब यह बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश वासियों तक ही सीमित रह गया है।

आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से नवरात्रोत्सव आरंभ होता है। नवरात्रोत्सव में घटस्थापना करते हैं। अखंड दीप के माध्यम से नौ दिन श्री दुर्गादेवी की पूजा अर्थात् नवरात्रोत्सव मनाया जाता है।

श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का उत्सव मनाया जाता है। इस तिथि में दिन भर उपवास कर रात्रि बारह बजे पालने में बालक श्रीकृष्ण का जन्मोत्सव मनाया जाता है, उसके उपरांत प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं, अथवा अगले दिन प्रात: दही-कलाकन्द का प्रसाद लेकर उपवास खोलते हैं।

आश्विन शुक्ल दशमी को विजयादशमी का त्यौहार मनाया जाता है। दशहरे के पहले नौ दिनों (नवरात्रि) में दसों दिशाएं देवी की शक्ति से प्रभासित होती हैं, व उन पर नियंत्रण प्राप्त होता है, दसों दिशाओंपर विजय प्राप्त हुई होती है। इसी दिन राम ने रावण पर विजय प्राप्त की थी।

शाकाहार

किसी भी हिन्दू का शाकाहारी होना आवश्यक नहीं है हालांकि शाकाहार को सात्विक आहार माना जाता है। आवश्यकता से अधिक तला भुना शाकाहार ग्रहण करना भी राजसिक माना गया है। मांसाहार को इसलिये अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि मांस पशुओं की हत्या से मिलता है, अत: तामसिक पदार्थ है। वैदिक काल में पशुओं का मांस खाने की अनुमति नहीं थी, एक सर्वेक्षण के अनुसार आजकल लगभग 70% हिन्दू, अधिकतर ब्राह्मण व गुजराती और मारवाड़ी हिन्दू पारम्परिक रूप से शाकाहारी हैं। वे गोमांस भी कभी नहीं खाते, क्योंकि गाय को हिन्दू धर्म में माता समान माना गया है। कुछ हिन्दू मन्दिरों में पशुबलि चढ़ती है, पर आजकल यह प्रथा हिन्दुओं द्वारा ही निन्दित किये जाने से समाप्तप्राय: है।

वर्ण व्यवस्था

प्राचीन हिंदू व्यवस्था में वर्ण व्यवस्था और जाति का विशेष महत्व था। चार वर्ण थे – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र। पहले यह व्यवस्था कर्म प्रधान थी। अगर कोई सेना में काम करता था तो वह क्षत्रिय हो जाता था चाहे उसका जन्म किसी भी जाति में हुआ हो। लेकिन मध्य काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरुप विदेशी आचार – व्यवहार एवं राज्य नियमों के तहत जाति व्यवस्था में बदल गया। विदेशी आक्रमणकारियों का शासन स्थापित होने से भारतीय जनमानस में भी उन्हीं प्रभाव हुआ। इन विदेशियों नें कुछ निर्बल भारतीयों को अपनी विस्ठा और मैला ढोने मे लगाया तथा इन्हें स्वरोजगार करने वाले लोगों (चर्मकार, धोबी, डोम {बांस से दैनिक उपयोग की वस्तुओं के निर्माता} इत्यादि) से जोड़ दिया। अंग्रेजो नें इस व्यवस्था को और अधिक विकृत किया एवं जनजातियों को भी शामिल कर दिया।।

अवतार 

सनातनी हिंदू भगवान विष्णु के १० अवतार मानते हैं:- मत्स्य, कूर्म, वराह, वामन, नरसिंह, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि।

हनुमान भी भगवान शिव के अवतार हैं।

कल्कि

कल्कि को हिन्दू भगवान विष्णु के दसवें अवतार और विष्णु का भावी या अंतिम अवतार माना गया है। कुंभ २०२५ में भगवान कल्कि आएंगे प्रयागराज।

वैष्णव ब्रह्माण्ड विज्ञान के अनुसार अन्तहीन चक्र वाले चार कालों में से अन्तिम कलियुग के अन्त में हिन्दू भगवान विष्णु के दसवें अवतार माने जाते हैं। जब भगवान कल्कि देवदत्त नाम के घोड़े पर आरूढ़ होकर तलवार से दुष्टों का संहार करेंगे तब सतयुग का प्रारंभ होगा।

धर्म ग्रंथों के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु कल्कि रूप में अवतार लेंगे। कल्कि अवतार कलियुग व सतयुग के संधिकाल में होगा।

पुराणकथाओं के अनुसार कलियुग में पाप की सीमा पार होने पर विश्व में दुष्टों के संहार के लिये कल्कि अवतार प्रकट होगा।

दन्तकथाएँ

धार्मिक एवं पौराणिक मान्यता के अनुसार जब पृथ्वी पर पाप बहुत अधिक बढ़ जाएगा। तब दुष्टों के संहार के लिए विष्णु का यह अवतार यानी ‘कल्कि अवतार’ प्रकट होगा। कल्कि को विष्णु का भावी और अंतिम अवतार माना गया है। भगवान का यह अवतार ” निष्कलंक भगवान “ के नाम से भी जाना जायेगा। आपको ये जानकर आश्चर्य होगा की भगवान श्री कल्कि ६४ कलाओं के पूर्ण निष्कलंक अवतार होंगे 

शास्त्रों के अनुसार यह अवतार भविष्य में होने वाला है। कलियुग के अन्त में जब शासकों का अन्याय बढ़ जायेगा। चारों तरफ पाप बढ़ जायेंगे तथा अत्याचार का बोलबाला होगा तब इस जगत का कल्याण करने के लिए भगवान विष्णु कल्कि के रूप में अवतार लेंगे।

श्रीमद्भागवत पुराण और भविष्यपुराण में कलियुग के अंत का वर्णन मिलता है. कलियुग में भगवान कल्कि का अवतार होगा, जो पापियों का संहार करके फिर से सतयुग की स्थापना करेंगे. कलियुग के अंत और कल्कि अवतार के संबंध में अन्य पुराणों में भी इसका वर्णन मिलता है.

युग परिवर्तनकारी भगवान श्री कल्कि के अवतार का प्रयोजन विश्वकल्याण बताया गया है। श्रीमद्भागवतमहापुराण में विष्णु के अवतारों की कथाएं विस्तार से वर्णित है। इसके बारहवें स्कन्ध के द्वितीय अध्याय में भगवान के कल्कि अवतार की कथा विस्तार से दी गई है जिसमें यह कहा गया है कि “सम्भल ग्राम (नगरी) में विष्णुयश नामक श्रेष्ठ ब्राह्मण के पुत्र के रूप में भगवान कल्कि का जन्म होगा। वह देवदत्त नामक घोड़े पर आरूढ़ होकर अपनी कराल करवाल (तलवार) से दुष्टों ,पापियों , म्लेच्छों का संहार करेंगे तभी सतयुग का प्रारम्भ होगा।”

श्रीमद्भागवत-महापुराण के 12वे स्कंद के अनुसार-

सम्भलग्राममुख्यस्य ब्राह्मणस्य महात्मनः।

भवने विष्णुयशसः कल्किः प्रादुर्भविष्यति।।

अर्थ- शम्भल ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राह्मण होंगे। उनका ह्रदय बड़ा उदार और भगवतभक्ति पूर्ण होगा। उन्हीं के घर कल्कि भगवान अवतार ग्रहण करेंगे।

कल्कि पुराण

कल्कि पुराण के अनुसार परशुराम, भगवान विष्णु के दसवें अवतार कल्कि के गुरु होंगे और उन्हें युद्ध की शिक्षा देंगे। वे ही कल्कि को भगवान शिव की तपस्या करके उनके दिव्यास्त्र को प्राप्त करने के लिये कहेंगे।

कल्कि पुराण में ”कल्कि“ अवतार के जन्म व परिवार की कथा इस प्रकार कल्पित है- ”शम्भल नामक ग्राम में विष्णुयश नाम के एक ब्राह्मण निवास करेंगे, जो सुमति नामक स्त्री के साथ विवाह करेंगें दोनों ही धर्म-कर्म में दिन बिताएँगे। कल्कि उनके घर में पुत्र होकर जन्म लेंगे और अल्पायु में ही वेदादि शास्त्रों का पाठ करके महापण्डित हो जाएँगे। बाद में वे जीवों के दुःख से कातर हो महादेव की उपासना करके अस्त्रविद्या प्राप्त करेंगे जिनका विवाह बृहद्रथ की पुत्री पद्मादेवी के साथ होगा।“

श्रीजयदेव गोस्वामी विरचित श्रीगीतगोविन्दम 

म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम् | धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||

केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे || १० ||

अनुवाद – हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || १० ||

दशावताराः श्लोक

मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहोऽथ वामनः । रामो रामश्च रामश्च कृष्णः कल्किश्च ते दशः ॥

कल्कि का मंदिर

भगवान श्री कल्कि का प्राचीन कल्कि विष्णु मंदिर उत्तर प्रदेश के संभल जिले में है। पुराणों में संभल जिले को शंभल के नाम से भी पुकारा गया है।

अन्य धर्म ग्रंथ में

उनकी पौराणिक कथाओं की तुलना अन्य धर्मों में मसीहा, कयामत, फ्रैशोकरेटी और मैत्रेय की अवधारणाओं से की गई है।

कल्कि, तिब्बती बौद्ध धर्म में बौद्ध ग्रंथों में भी पाया जाता है। 

दावेदार 

कल्कि अवतार के इस पद पर अनेक स्वघोषित दावेदार हैं जो समय-समय पर भविष्यवाणियों के अनुसार स्वयं को सिद्ध करने की कोशिश और कल्कि अवतार के सम्बन्ध में अनेक भविष्यवाणी करते रहते हैं जिन्हें सोसल मीडिया पर ”कल्कि अवतारों को पहचानने के लिए दिव्य अलौकिक कलाओं को देखना होता है और शास्त्रीय विधा, वैदिक काल निर्णय अनुसार निर्णयात्मक देवीय दिशा देकर संतों गौ द्विज का उद्धार, न्याय अनुसार जनहित करने वाला, युग के सर्वोच्च स्तर के सार्वभौम सत्य को व्यक्त करने वाला युगावतार कहलाता है।

श्रीमद्भगवद्गीता

महाभारत युद्धारम्भ होने के ठीक पहले भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो उपदेश दिया वह श्रीमद्भगवद्गीता के नाम से प्रसिद्ध है। यह महाभारत के भीष्मपर्व का अङ्ग है। गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक हैं। गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी सम्मिलित हैं। अतएव भारतीय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद और धर्मसूत्रों का है। उपनिषदों को गौ (गाय) और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं। जैसे, संसार के स्वरूप के सम्बन्ध में अश्वत्थ विद्या, अनादि अजन्मा ब्रह्म के विषय में अव्ययपुरुष विद्या, परा प्रकृति या जीव के विषय में अक्षरपुरुष विद्या और अपरा प्रकृति या भौतिक जगत के विषय में क्षरपुरुष विद्या। इस प्रकार वेदों के ब्रह्मवाद और उपनिषदों के अध्यात्म, इन दोनों की विशिष्ट सामग्री गीता में संनिविष्ट है। उसे ही पुष्पिका के शब्दों में ब्रह्मविद्या कहा गया है।

महाभारत के युद्ध के समय जब अर्जुन युद्ध करने से मना करते हैं तब श्री कृष्ण उन्हें उपदेश देते है और कर्म व धर्म के सच्चे ज्ञान से अवगत कराते हैं। श्री कृष्ण के इन्हीं उपदेशों को श्रीमद्भगवद्गीता नामक ग्रन्थ में सङ्कलित किया गया है।

गीता के १८ अध्याय

श्रीमद्भागवद्गीता के सभी १८ अध्यायों का संक्षिप्त परिचय क्रमशः निम्नप्रकार से हैं:-

  • १. अर्जुन विषादयोग (सेना का सैन्य निरीक्षण)
  • २. साङ्ख्ययोग (गीता का सार)
  • ३. कर्मयोग
  • ४. ज्ञान कर्म संन्यासयोग (दिव्य ज्ञान)
  • ५. कर्म संन्यासयोग (कर्म वैराग्य योग)
  • ६. आत्मसंयमयोग (ध्यान योग)
  • ७. ज्ञान विज्ञानयोग (भगवद्ज्ञान की प्राप्ति)
  • ८. अक्षर ब्रह्मयोग (भगवान की प्राप्ति)
  • ९. राजविद्या राजगुह्ययोग (परम गुप्त ज्ञान)
  • १०. विभूतियोग (श्रीभगवान का ऐश्वर्य)
  • ११. विश्वरूप दर्शनयोग (विराट रूप)
  • १२. भक्तियोग
  • १३. क्षेत्र क्षेत्रज्ञ विभागयोग (प्रकृति, पुरुष तथा चेतना)
  • १४. गुणत्रय विभागयोग (प्रकृति के तीन गुण)
  • १५. पुरुषोत्तमयोग
  • १६. दैवासुर समद्विभागयोग ( दैवी तथा आसुरी स्वभाव)
  • १७. श्रद्धात्रय विभागयोग (श्रद्धा के विभाग)
  • १८. मोक्ष संन्यासयोग (उपसंहार-संन्यास की सिद्धि)

प्रथम अध्याय

प्रथम अध्याय का नाम अर्जुनविषादयोग है। वह गीता के उपदेश का विलक्षण रंगमंच प्रस्तुत करता है जिसमें श्रोता और वक्ता दोनों ही कुतूहल शांति के लिए नहीं वरन् जीवन की प्रगाढ़ समस्या के समाधान के लिये प्रवृत्त होते हैं। शौर्य और धैर्य, साहस और बल इन चारों गुणों की प्रभूत मात्रा से अर्जुन का व्यक्तित्व बना था और इन चारों के ऊपर दो गुण और थे एक क्षमा, दूसरी प्रज्ञा। बलप्रधान क्षात्रधर्म से प्राप्त होनेवाली स्थिति में पहुँचकर सहसा अर्जुन के चित्त पर एक दूसरे ही प्रकार के मनोभाव का आक्रमण हुआ, कार्पण्य का। एक विचित्र प्रकार की करुणा उसके मन में भर गई और उसका क्षात्र स्वभाव लुप्त हो गया। जिस कर्तव्य के लिए वह कटिबद्ध हुआ था उससे वह विमुख हो गया। ऊपर से देखने पर तो इस स्थिति के पक्ष में उसके तर्क धर्मयुक्त जान पड़ते हैं, किंतु उसने स्वयं ही उसे कार्पण्य दोष कहा है और यही माना है कि मन की इस कायरता के कारण उसका जन्मसिद्ध स्वभाव उपहत या नष्ट हो गया था। वह निर्णय नहीं कर पा रहा था कि युद्ध करे अथवा वैराग्य ले ले। क्या करें, क्या न करें, कुछ समझ में नहीं आता था। इस मनोभाव की चरम स्थिति में पहुँचकर उसने धनुषबाण एक ओर डाल दिया।

कृष्ण ने अर्जुन की वह स्थिति देखकर जान लिया कि अर्जुन का शरीर ठीक है किंतु युद्ध आरंभ होने से पहले ही उस अद्भुत क्षत्रिय का मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अतएव कृष्ण के सामने एक गुरु कर्तव्य आ गया। अत: तर्क से, बुद्धि से, ज्ञान से, कर्म की चर्चा से, विश्व के स्वभाव से, उसमें जीवन की स्थिति से, दोनों के नियामक अव्यय पुरुष के परिचय से और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार करना, यही उनका लक्ष्य हुआ। इसी तत्वचर्चा का विषय गीता है। पहले अध्याय में सामान्य रीति से भूमिका रूप में अर्जुन ने भगवान से अपनी स्थिति कह दी।

  • प्रथम अध्याय में दोनों सेनाओं का वर्णन किया जाता है।
  • शंख बजाने के पश्चात अर्जुन सेना को देखने के लिए रथ को सेनाओं के मध्य ले जाने के लिए कृष्ण से कहते हैं।
  • तब मोहयुक्त हो अर्जुन कायरता तथा शोक युक्त वचन कहते है।

द्वितीय अध्याय

दूसरे अध्याय का नाम सांख्ययोग है। इसमें जीवन की दो प्राचीन संमानित परंपराओं का तर्कों द्वारा वर्णन आया है। अर्जुन को उस कृपण स्थिति में रोते देखकर कृष्ण ने उनका ध्यान दिलाया है कि इस प्रकार का क्लैव्य और हृदय की क्षुद्र दुर्बलता अर्जुन जैसे वीर के लिए उचित नहीं।

कृष्ण ने अर्जुन की अब तक दी हुई सब युक्तियों को प्रज्ञावाद का झूठा रूप कहा। उनकी युक्ति यह है कि प्रज्ञादर्शन काल, कर्म और स्वभाव से होनेवाले संसार की सब घटनाओं और स्थितियों को अनिवार्य रूप से स्वीकार करता है। जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं, इसी को प्राचीन आचार्य पर्यायवाद का नाम भी देते थे। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। यही भगवान का व्यंग्य है कि प्रज्ञा के दृष्टिकोण को मानते हुए भी अर्जुन इस प्रकार के मोह में क्यों पड़ गया है।

ऊपर के दृष्टिकोण का एक आवश्यक अंग जीवन की नित्यता और शरीर की अनित्यता था। नित्य जीव के लिए शोक करना उतना ही व्यर्थ है जितना अनित्य शरीर को बचाने की चिंता। ये दोनों अपरिहार्य हैं। जन्म और मृत्यु बारी बारी से होते ही हैं, ऐसा समझकर शोक करना उचित नहीं है।

फिर एक दूसरा दृष्टिकोण स्वधर्म का है। जन्म से ही प्रकृति ने सबके लिए एक धर्म नियत कर दिया है। उसमें जीवन का मार्ग, इच्छाओं की परिधि, कर्म की शक्ति सभी कुछ आ जाता है। इससे निकल कर नहीं भागा जा सकता। कोई भागे भी तो प्रकृत्ति उसे फिर खींच लाती है।

इस प्रकार काल का परिवर्तन या परिमाण, जीव की नित्यता और अपना स्वधर्म या स्वभाव जिन युक्तियों से भगवान् ने अर्जुन को समझाया है उसे उन्होंने सांख्य की बुद्धि कहा है। इससे आगे अर्जुन के प्रश्न न करने पर भी उन्होंने योगमार्ग की बुद्धि का भी वर्णन किया। यह बुद्धि कर्म या प्रवृत्ति मार्ग के आग्रह की बुद्धि है इसमें कर्म करते हुए कर्म के फल की आसक्ति से अपने को बचाना आवश्यक है। कर्मयोगी के लिए सबसे बड़ा डर यही है कि वह फल की इच्छा के दल दल में फँस जाता है; उससे उसे बचना चाहिए।

अर्जुन को संदेह हुआ कि क्या इस प्रकार की बुद्धि प्राप्त करना संभव है। व्यक्ति कर्म करे और फल न चाहे तो उसकी क्या स्थिति होगी, यह एक व्यावहारिक शंका थी। उसने पूछा कि इस प्रकार का दृढ़ प्रज्ञावाला व्यक्ति जीवन का व्यवहार कैसे करता है? आना, जाना, खाना, पीना, कर्म करना, उनमें लिप्त होकर भी निर्लेप कैसे रहा जा सकता है? कृष्ण ने कितने ही प्रकार के बाह्य इंद्रियों की अपेक्षा मन के संयम की व्याख्या की है। काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष के द्वारा मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियाँ वश में नहीं रहतीं। इंद्रियजय ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। समुद्र में नदियाँ आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में ब्राह्मीस्थिति कहा है।

  • अर्जुन की कायरता के विषय में अर्जुन कृष्ण संवाद
  • सांख्य योग
  • कर्मयोग
  • स्थिर बुद्धि व्यक्ति के गुण

तृतीय अध्याय

इस प्रकार सांख्य की व्याख्या उत्तर सुनकर कर्मयोग नामक तीसरे अध्याय में अर्जुन ने इस विषय में और गहरा उतरने के लिए स्पष्ट प्रश्न किया कि सांख्य और योग इन दोनों मार्गों में आप किसे अच्छा समझते हैं और क्यों नहीं यह निश्चित कहते कि मैं इन दोनों में से किसे अपनाऊँ? इसपर कृष्ण ने भी उतनी ही स्पष्टता से उत्तर दिया कि लोक में दो निष्ठाएँ या जीवनदृष्टियाँ हैं-सांख्यवादियों के लिए ज्ञानयोग है और कर्ममार्गियों के लिए कर्मयोग है। यहाँ कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। प्रकृति तीनों गुणों के प्रभाव से व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। कर्म से बचनेवालों के प्रति एक बड़ी शंका है, वह यह कि वे ऊपर से तो कर्म छोड़ बैठते हैं पर मन ही मन उसमें डूबे रहते हैं। यह स्थिति असह्य है और इसे कृष्ण ने गीता में मिथ्याचार कहा है। मन में कर्मेद्रियों को रोककर कर्म करना ही सरल मानवीय मार्ग है। कृष्ण ने चुनौती के रूप में यहाँ तक कह दिया कि कर्म के बिना तो खाने के लिए अन्न भी नहीं मिल सकता। फिर कृष्ण ने कर्म के विधान को चक्र के रूप में उपस्थित किया। न केवल सामाजिक धरातल पर भिन्न व्यक्तियों के कर्मचक्र अरों की तरह आपस में पिरोए हुए हैं बल्कि पृथ्वी के मनुष्य और स्वर्ग के देवता दोनों का संबंध भी कर्मचक्र पर आश्रित है। प्रत्यक्ष है कि यहाँ मनुष्य कर्म करते हैं, कृषि करते हैं और दैवी शक्तियाँ वृष्टि का जल भेजती हैं। अन्न और पर्जन्य दोनों कर्म से उत्पन्न होते हैं। एक में मानवीय कर्म, दूसरे में दैवी कर्म। फिर कर्म के पक्ष में लोकसंग्रह की युक्ति दी गई है, अर्थात् कर्म के बिना समाज का ढाँचा खड़ा नहीं रह सकता। जो लोक के नेता हैं, जनक जैसे ज्ञानी हैं, वे भी कर्म में प्रवृत्ति रखते हैं। कृष्ण ने स्वयं अपना ही दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूँ, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी तंद्रारहित होकर कर्म करता हूँ और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता है। गीता में यहीं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते, और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक गये

  • नित्य कर्म करने वाले की श्रेष्ठता।
  • यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता।
  • अज्ञानी और ज्ञानी के लक्षण।
  • काम के निरोध का विषय।

चतुर्थ अध्याय

‘चौथे अध्याय में, जिसका नाम ज्ञान-कर्म-संन्यास-योग है, यह बाताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यहीं गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, अर्थात् भगवान की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है।

यहीं पर एक वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है- क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा (४१२)। ‘कर्म से सिद्धि’-इससे बड़ा प्रभावशाली जय सूत्र गीतादर्शन में नहीं है। किंतु गीतातत्व इस सूत्र में इतना सुधार और करता है कि वह कर्म असंग भाव से अर्थात् फलासक्ति से बचकर करना चाहिए।

भगवान बताते हैं कि सबसे पहले मैंने यह ज्ञान भगवान सूर्य को दिया था। सूर्य के पश्चात गुरु परंपरा द्वारा आगे बढ़ा। किन्तु अब यह लुप्तप्राय हो गया है। अब वही ज्ञान मैं तुम्हे बताने जा रहा हूँ। अर्जुन कहते हैं कि आपका तो जन्म हाल में ही हुआ है तो आपने यह सूर्य से कैसे कहा? तब श्री भगवान ने कहा है की तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हुए लेकिन तुम्हे याद नहीं पर मुझे याद है।

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४-७॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४-८॥

श्री कृष्ण कहते हैं की जब जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है तब तब मैं अपने स्वरूप की रचना करता हूँ| ॥४-७॥

साधुओं की रक्षा के लिए, दुष्कर्मियों का विनाश करने के लिए, धर्म की स्थापना के लिए मैं युग युग में मानव के रूप में अवतार लेता हूँ| ॥४-८॥

  • कर्म, अकर्म और विकर्म का वर्णन।
  • यज्ञोके स्वरूप।
  • ज्ञानयज्ञ का वर्णन।

पाँचवाँ अध्याय 

पाँचवे अध्याय कर्मसंन्यास योग नामक में फिर वे ही युक्तियाँ और दृढ़ रूप में कहीं गई हैं। इसमें कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। यह भी कहा गया है कि ऊँचे धरातल पर पहुँचकर सांख्य और योग में कोई भेद नहीं रह जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।

भगवान श्रीकृष्ण इस अध्याय में कर्मयोग और साधु पुरुष का वर्णन करते हैं। तथा बताते हैं कि मैं सृष्टि के हर जीव में समान रूप से रहता हूँ अतः प्राणी को समदर्शी होना चाहिए।

विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।।शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:

“ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं कुत्ते में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।”

छठा अध्याय

छठा अध्याय आत्मसंयम योग है जिसका विषय नाम से ही प्रकट है। जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम-यही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहते हैं।

सातवाँ अध्याय

सातवें अध्याय की संज्ञा ज्ञानविज्ञान योग है। ये प्राचीन भारतीय दर्शन की दो परिभाषाएँ हैं। उनमें भी विज्ञान शब्द वैदिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण था। सृष्टि के नानात्व का ज्ञान विज्ञान है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। इस प्रसंग में विज्ञान की दृष्टि से अपरा और परा प्रकृति के इन दो रूपों की जो सुनिश्चित व्याख्या यहाँ गीता ने दी है, वह अवश्य ध्यान देने योग्य है। अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं, पंचभूत, मन, बुद्धि और अहंकार। जिस अंड से मानव का जन्म होता है। उसमें ये आठों रहते हैं। किंतु यह प्राकृत सर्ग है अर्थात् यह जड़ है। इसमें ईश्वर की चेष्टा के संपर्क से जो चेतना आती है उसे परा प्रकृति कहते हैं; वही जीव है। आठ तत्वों के साथ मिलकर जीवन नवाँ तत्व हो जाता है। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र-वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रु चि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं। किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म विद्या का सर्वोच्च शिखर है।

पंचतत्व, मन, बुद्धि भी मैं हूँ| मैं ही संसार की उत्पत्ति करता हूँ और विनाश भी मैं ही करता हूँ। मेरे भक्त चाहे जिस प्रकार भजें परन्तु अंततः मुझे ही प्राप्त होते हैं। मैं योगमाया से अप्रकट रहता हूँ और मुर्ख मुझे केवल साधारण मनुष्य ही समझते हैं।

यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।
वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।।7.26।।

आठवाँ अध्याय

आठवें अध्याय की संज्ञा अक्षर ब्रह्मयोग है। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ। गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है-अक्षर ब्रह्म परमं, अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। गीताकार ने दो श्लोकों में (८।३-४) इन छह पारिभाषाओं का स्वरूप बाँध दिया है। गीता के शब्दों में ॐ एकाक्षर ब्रह्म है (८।१३)।

नवम अध्याय

नवें अध्याय को राजगुह्ययोग कहा गया है, अर्थात् यह अध्यात्म विद्या विद्याराज्ञी है और यह गुह्य ज्ञान सबमें श्रेष्ठ है। राजा शब्दका एक अर्थ मन भी था। अतएव मन की दिव्य शक्तिमयों को किस प्रकार ब्रह्ममय बनाया जाय, इसकी युक्ति ही राजविद्या है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है, समन्वय की यह दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुत: यह उनकी बड़ी शक्ति थी। इसी दृष्टिकोण का विचार या व्याख्या दसवें अध्याय में पाई जाती है।

दसवाँ अध्याय

दसवें अध्याय का नाम विभूतियोग है। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान, की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। बुद्धि से इन छुटभैए देवताओं की व्याख्या चाहे ने हो सके किंतु लोक में तो वह हैं ही। कोई पीपल को पूज रहा है। कोई पहाड़ को कोई नदी या समुद्र को, कोई उनमें रहनेवाले मछली, कछुओं को। यों कितने देवता हैं, इसका कोई अंत नहीं। विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टी प्रदान की। इसी का नाम विभूतियोग है। जो सत्व जीव बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, वह सब भगवान का रूप है। इतना मान लेने से चित्त निर्विरोध स्थिति में पहुँच जाता है।

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥ ७ ॥

ग्यारहवाँ अध्याय

११वें का नाम विश्वरूपदर्शन योग है। इसमें अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है।

जब अर्जुन ने भगवान का विराट रुप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोटन होने लगा। ‘दिशो न जाने न लभे च शर्म’ ये ही घबराहट के वाक्य उनके मुख से निकले और उसने प्रार्थना की कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त हैं।

बारहवाँ अध्याय

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते । ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः

अर्जुनः उवाच-अर्जुन ने कहा; एवम्-इस प्रकार सतत निरन्तरः युक्ताः तत्परः ये-जो; भक्ताः- भक्तगणः त्वाम्-आपकोः पर्युपासते ठीक से पूजते हैं; ये-जो; च-भीः अपि पुनः अक्षरम्-इन्द्रियों से परे; अव्यक्तम्-अप्रकट को; तेषाम् उनमें से; के-कौन, योगवित्-तमाः- योगविद्या में अत्यन्त निपुण ।

अर्जुन ने पूछा-जो आपकी सेवा में सदैव तत्पर रहते हैं, या जो अव्यक्त निर्विशेष ब्रह्म की पूजा करते हैं, इन दोनों में से किसे अधिक पूर्ण (सिद्ध) माना जाय

तात्पर्य : अब तक कृष्ण साकार, निराकार एवं सर्वव्यापकत्व को समझा चुके हैं और सभी प्रकार के भक्तों और योगियों का भी वर्णन कर चुके हैं। सामान्यतः अध्यात्मवादियों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है-निर्विशेषवादी तथा सगुणवादी। सगुणवादी भक्त अपनी सारी शक्ति से परमेश्वर की सेवा करता है।

तात्पर्य : जो लोग भगवान् कृष्ण की प्रत्यक्ष पूजा न करके, अप्रत्यक्ष विधि से उसी उद्देश्य को प्राप्त करने का प्रयत्न करते हैं, वे भी अन्ततः श्रीकृष्ण को प्राप्त होते हैं। “अनेक जन्मों के बाद बुद्धिमान व्यक्ति वासुदेव को ही सब कुछ जानते हुए मेरी शरण में आता है।” जब मनुष्य को अनेक जन्मों के वाद पूर्ण ज्ञान होता है, तो वह कृष्ण की शरण ग्रहण करता है। यदि कोई इस श्लोक में बताई गई विधि से भगवान् के पास पहुँचता है, तो उसे इन्द्रियनिग्रह करना होता है, प्रत्येक प्राणी की सेवा करनी होती है, और समस्त जीवों के कल्याण कार्य में रत होना होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य को भगवान् कृष्ण के पास पहुँचना ही होता है, अन्यथा पूर्ण साक्षात्कार नहीं हो पाता। प्रायः भगवान् की शरण में जाने के पूर्व पर्याप्त तपस्या करनी होती है।

१२वें का नाम भक्ति योग है जो जानने योग्य है। जिसको जानकर मनुष्य परमानन्द को प्राप्त हो जाता है अर्थात वो परमात्मा ही सत्य है ।।

तेरहवाँ अध्याय

१३वें अध्याय में एक सीधा विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार है। यह शरीर क्षेत्र है, उसका जाननेवाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है।

चौदहवाँ अध्याय

१४वें अध्याय का नाम गुणत्रय विभाग योग है। यह विषय समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है-सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएँ हैं। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। गुणों के वैषम्य से ही वैकृत सृष्टि का जन्म होता है। अकेला सत्व शांत स्वभाव से निर्मल प्रकाश की तरह स्थिर रहता है और अकेला तम भी जड़वत निश्चेष्ट रहता है। किंतु दोनों के बीच में छाया हुआ रजोगुण उन्हें चेष्टा के धरातल पर खींच लाता है। गति तत्व का नाम ही रजस है।

पन्द्रहवाँ अध्याय

पन्द्रहवें अध्याय का नाम पुरुषोत्तमयोग है। इसमें विश्व का अश्वत्थ के रूप में वर्णन किया गया है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तारवाला है। देश और काल में इसका कोई अंत नहीं है। किंतु इसका जो मूल या केंद्र है, जिसे ऊर्ध्व कहते हैं, वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही एक एक चैतन्य केंद्र में या प्राणि शरीर में आया हुआ है। जैसा गीता में स्पष्ट कहा है-अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: (१५.१४)। वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़कर और दूसरा रहस्य नहीं है। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है।

सोलहवाँ अध्याय

सोलहवें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्वेद में सृष्टि की कल्पना दैवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत।

सत्रहवाँ अध्याय[

१७वें अध्याय की संज्ञा श्रद्धात्रय विभाग योग है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। उनके भेद और लक्षण गीता ने यहाँ बताए हैं।

अट्ठारहवाँ अध्याय

१८वें अध्याय की संज्ञा मोक्षसंन्यास योग है। इसमें गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। यहाँ पुन: बलपूर्वक मानव जीवन के लिए तीन गुणों का महत्व कहा गया है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को बहुत देख भागकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके और क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसको पहचान सके। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। According to gita bar bar apna nam lena aapko bhitar se khali aur khokla banata hai. Aapko kamzor pradarshit karta hai. Aap agar apna nam rozana lete ho to yeh gita ke anusar galt mana gya hai.

इस प्रकार भगवान ने जीवन के लिए व्यावहारिक मार्ग का उपदेश देकर अंत में यह कहा है कि मनुष्य को चाहिए कि संसार के सब व्यवहारों का सच्चाई से पालन करते हुए, जो अखंड चैतन्य तत्व है, जिसे ईश्वर कहते हैं, जो प्रत्येक प्राणी के हृद्देश या केंद्र में विराजमान है, उसमें विश्वास रखे, उसका अनुभव करे। वही जीव की सत्ता है, वही चेतना है और वही सर्वोपरि आनन्द का स्रोत है।

गीता जयंती

ब्रह्मपुराण के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल एकादशी का बहुत बड़ा महत्व है। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन अर्जुन को भगवद् गीता का उपदेश दिया था। इसीलिए यह तिथि गीता जयंती के नाम से भी प्रसिद्ध है। और इस एकादशी को “मोक्षदा एकादशी” कहते है. भगवान ने अर्जुन को निमित्त बनाकर, विश्व के मानव मात्र को गीता के ज्ञान द्वारा जीवनाभिमुख बनाने का चिरन्तन प्रयास किया है।

गीता पर भाष्य

संस्कृत साहित्य की परम्परा में उन ग्रन्थों को भाष्य (शाब्दिक अर्थ – व्याख्या के योग्य), कहते हैं जो दूसरे ग्रन्थों के अर्थ की वृहद व्याख्या या टीका प्रस्तुत करते हैं। भारतीय दार्शनिक परंपरा में किसी भी नये दर्शन को या किसी दर्शन के नये स्वरूप को जड़ जमाने के लिए जिन तीन ग्रन्थों पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करना पड़ता था (अर्थात् भाष्य लिखकर) उनमें भगवद्गीता भी एक है (अन्य दो हैं- उपनिषद् तथा ब्रह्मसूत्र)। 

गीता पर अनेक अचार्यों एवं विद्वानों ने टीकाएँ की हैं। संप्रदायों के अनुसार उनकी संक्षिप्त सूची इस प्रकार है :

  • (अ) अद्वैत – शांकराभाष्य, श्रीधरकृत सुबोधिनी, मधुसूदन सरस्वतीकृत गूढ़ार्थदीपिका।
  • (आ) विशिष्टाद्वैत
  • (१) यामुनाचार्य कृत गीता अर्थसंग्रह, जिसपर वेदांतदेशिककृत गीतार्थ-संग्रह रक्षा टीका है।
  • (२) रामानुजाचार्यकृत गीताभाष्य, जिसपर वेदांतदेशिककृत तात्पर्यचंद्रिका टीका है।
  • (इ) द्वैत – मध्वाचार्य कृत गीताभाष्य, जिसपर जयतीर्थकृत प्रमेयदीपिका टीका है, मध्वाचार्यकृत गीता-तात्पर्य निर्णय।
  • (ई) शुद्धाद्वैत – वल्लभाचार्य कृत तत्वदीपिका, जिसपर पुरुषोत्तमकृत अमृततरंगिणी टीका है।
  • (उ) कश्मीरी टीकाएँ – १. अभिनवगुप्तकृत गीतार्थ संग्रह। २. आनंदवर्धनकृत ज्ञानकर्मसमुच्चय।

इनके अतिरिक्त महाराष्ट्र संत ज्ञानदेव या ज्ञानेश्वरकृत भावार्थदीपिका नाम की टीका (१२९०) प्रसिद्ध है जो गीता के ज्ञान को भावात्मक काव्यशैली में प्रकट करती है। महाराष्ट्र मे महानुभाव संप्रदाय के संस्थापक चक्रधर स्वामी इनके महानुभाव तत्वज्ञान पर आधारित मुरलीधर शास्त्री आराध्ये इन्होने रहस्यार्थ चंद्रिका नाम की गीता टीका लिखी है। इसके सीवा महानुभाव संप्रदाय मे और भी 52 गीता टीका उपलब्ध है। वर्तमान युग में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलककृत गीतारहस्य टीका, जो अत्यंत विस्तृत भूमिका तथा विवेचन के साथ पहली बार १९१५ ई। में पूना से प्रकाशित हुई थी, गीता साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। उसने गीता के मूल अर्थों को विद्वानों तक पहुँचाने में ऐसा मोड़ दिया है जो शंकराचार्य के बाद आज तक संभव नहीं हुआ था। वस्तुत: शंकराचार्य का भाष्य गीता का मुख्य अर्थ ज्ञानपरक करता है जबकि तिलक ने गीता को कर्म का प्रतिपादक शस्त्र सिद्ध किया है।

  • गीताभाष्य – आदि शंकराचार्य
  • गीताभाष्य – रामानुज
  • गूढार्थदीपिका टीका – मधुसूदन सरस्वती
  • सुबोधिनी टीका – श्रीधर स्वामी
  • ज्ञानेश्वरी – संत ज्ञानेश्वर (संस्कृत से गीता का मराठी अनु
  • गीतारहस्य – बालगंगाधर तिलक
  • अनासक्ति योग – महात्मा गांधी
  • Essays on Gita – अरविन्द घोष
  • ईश्वरार्जुन संवाद- परमहंस योगानन्द
  • गीता-प्रवचन – विनोबा भावे
  • गीता तत्व विवेचनी टीका – जयदयाल गोयन्दका
  • भगवदगीता का सार- स्वामी क्रियानन्द
  • गीता साधक संजीवनी (टीका)- स्वामी रामसुखदास
  • गीता हृदय-यति राज दण्डी स्वामी सहजानंद सरस्वती
  • श्रीमद्भगवद्गीता (आध्यात्मिक गीता के नाम से प्रसिद्ध) – योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी व श्री भूपेद्रनाथ सान्याल जी की टीका और गोपीनाथ कविराज जी द्वारा भूमिका भगवद्गीता पर उपलब्ध सभी भाष्यों में श्री जयदयाल गोयन्दका की तत्व विवेचनी सर्वाधिक लोकप्रिय तथा जनसुलभ है। इसका प्रकाशन गीताप्रेस के द्वारा किया जाता है। आजतक इसकी 10 करोड़ प्रतियां बिक चुकी हैं।

गीता नाम के अन्य ग्रन्थ

  • अष्टावक्र गीता
  • अवधूत गीता
  • कपिल गीता
  • श्रीराम गीता
  • श्रुति गीता
  • उद्धव गीता
  • वैष्णव गीता
  • कृषि गीता
  • गुरु। गीता

आधुनिक जनजीवन में

श्रीमद्भगवद्गीता बदलते सामाजिक परिदृश्यों में अपनी महत्ता को बनाए हुए हैं और इसी कारण तकनीकी विकास ने इसकी उपलब्धता को बढ़ाया है, तथा अधिक बोधगम्य बनाने का प्रयास किया है। दूरदर्शन पर प्रसारित धारावाहिक महाभारत में भगवद्गीता विशेष आकर्षण रही, वहीं धारावाहिक कृष्णा (टीवी धारावाहिक) ‘ में भगवद्गीता पर अत्यधिक विशद शोध करके उसे कई कड़ियों की एक शृंखला के रूप में दिखाया गया। इसकी एक विशेष बात यह रही कि गीता से संबंधित सामान्य मनुष्य के संदेहों को अर्जुन के प्रश्नों के माध्यम से उत्तरित करने का प्रयास किया गया। इसके अलावा नीतीश भारद्वाज कृत धारावाहिक गीता-रहस्य (धारावाहिक) तो पूर्णतया गीता के ही विभिन्न आयामों पर केंद्रित रहा।

इंटरनेट पर भी आज अनेकानेक वेबसाइटें इस विषय पर बहुमाध्यमों के द्वारा विशद जानकारी देती हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है। विश्व के सभी धर्मों की सबसे प्रसिद्ध पुस्तकों में शामिल है। गीता प्रेस गोरखपुर जैसी धार्मिक साहित्य की पुस्तकों को काफी कम मूल्य पर उपलब्ध कराने वाले प्रकाशन ने भी कई आकार में अर्थ और भाष्य के साथ श्रीमद्भगवद्गीता के प्रकाशन द्वारा इसे आम जनता तक पहुंचाने में काफी योगदान दिया है।

भगवद्गीता सन्देश सार

गीता का उपदेश अत्यन्त पुरातन योग है। श्री भगवान् कहते हैं इसे मैंने सबसे पहले सूर्य से कहा था। सूर्य ज्ञान का प्रतीक है अतः श्री भगवान् के वचनों का तात्पर्य है कि पृथ्वी उत्पत्ति से पहले भी अनेक स्वरूप अनुसंधान करने वाले भक्तों को यह ज्ञान दे चुका हूँ। यह ईश्वरीय वाणी है जिसमें सम्पूर्ण जीवन का सार है एवं आधार है। मैं कौन हूँ? यह देह क्या है? इस देह के साथ क्या मेरा आदि और अन्त है? देह त्याग के पश्चात् क्या मेरा अस्तित्व रहेगा? यह अस्तित्व कहाँ और किस रूप में होगा? मेरे संसार में आने का क्या कारण है? मेरे देह त्यागने के बाद क्या होगा, कहाँ जाना होगा? किसी भी जिज्ञासु के हृदय में यह बातें निरन्तर घूमती रहती हैं। हम सदा इन बातों के बारे में सोचते हैं और अपने को, अपने स्वरूप को नहीं जान पाते। गीता शास्त्र में इन सभी के प्रश्नों के उत्तर सहज ढंग से श्री भगवान् ने धर्म संवाद के माध्यम से दिये हैं। इस देह को जिसमें 36 तत्व जीवात्मा की उपस्थिति के कारण जुड़कर कार्य करते हैं, क्षेत्र कहा है और जीवात्मा इस क्षेत्र में निवास करता है, वही इस देह का स्वामी है परन्तु एक तीसरा पुरुष भी है, जब वह प्रकट होता है; अधिदैव अर्थात् 36 तत्वों वाले इस देह (क्षेत्र) को और जीवात्मा (क्षेत्रज्ञ) का नाश कर डालता है। यही उत्तम पुरुष ही परम स्थिति और परम सत् है। यही नहीं, देह में स्थित और देह त्यागकर जाते हुए जीवात्मा की गति का यथार्थ वैज्ञानिक एंव तर्कसंगत वर्णन गीता शास्त्र में हुआ है। जीवात्मा नित्य है और आत्मा (उत्तम पुरुष) को जीव भाव की प्राप्ति हुई है। शरीर के मर जाने पर जीवात्मा अपने कर्मानुसार विभिन्न योनियों में विचरण करता है। गीता का प्रारम्भ धर्म शब्द से होता है तथा गीता के अठारहवें अध्याय के अन्त में इसे धर्म संवाद कहा है। धर्म का अर्थ है धारण करने वाला अथवा जिसे धारण किया गया है। धारण करने वाला जो है उसे आत्मा कहा गया है और जिसे धारण किया है वह प्रकृति है। आत्मा इस संसार का बीज अर्थात पिता है और प्रकृति गर्भधारण करने वाली योनि अर्थात माता है।

धर्म शब्द का प्रयोग गीता में आत्म स्वभाव एवं जीव स्वभाव के लिए जगह जगह प्रयुक्त हुआ है। इसी परिपेक्ष में धर्म एवं अधर्म को समझना आवश्यक है। आत्मा का स्वभाव धर्म है अथवा कहा जाय धर्म ही आत्मा है। आत्मा का स्वभाव है पूर्ण शुद्ध ज्ञान, ज्ञान ही आनन्द और शान्ति का अक्षय धाम है। इसके विपरीत अज्ञान, अशांति, क्लेश और अधर्म का द्योतक है।

आत्मा अक्षय ज्ञान का स्रोत है। ज्ञान शक्ति की विभिन्न मात्रा से क्रिया शक्ति का उदय होता है, प्रकृति का जन्म होता है। प्रकृति के गुण सत्त्व, रज, तम का जन्म होता है। सत्त्व-रज की अधिकता धर्म को जन्म देती है, तम-रज की अधिकता होने पर आसुरी वृत्तियाँ प्रबल होती और धर्म की स्थापना अर्थात गुणों के स्वभाव को स्थापित करने के लिए, सतोगुण की वृद्धि के लिए, अविनाशी ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त आत्मा अपने संकल्प से देह धारण कर अवतार गृहण करती है।

सम्पूर्ण गीता शास्त्र का निचोड़ है बुद्धि को हमेशा सूक्ष्म करते हुए महाबुद्धि आत्मा में लगाये रक्खो तथा संसार के कर्म अपने स्वभाव के अनुसार सरल रूप से करते रहो। स्वभावगत कर्म करना सरल है और दूसरे के स्वभावगत कर्म को अपनाकर चलना कठिन है क्योंकि प्रत्येक जीव भिन्न भिन्न प्रकृति को लेकर जन्मा है, जीव जिस प्रकृति को लेकर संसार में आया है उसमें सरलता से उसका निर्वाह हो जाता है। श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है। यद्यपि अलग-अलग देखा जाय तो ज्ञान योग, बुद्धि योग, कर्म योग, भक्ति योग आदि का गीता में उपदेश दिया है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो सभी योग बुद्धि से श्री भगवान को अर्पण करते हुए किये जा सकते हैं इससे अनासक्त योग निष्काम कर्म योग स्वतः सिद्ध हो जाता है। (सन्दर्भ – बसंतेश्वरी भगवदगीता से)

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय सनातन धर्म का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसे महाभारत के भीष्मपर्व के अंतर्गत रखा गया है। यह ग्रंथ संस्कृत में लिखा गया है और इसे श्रीकृष्ण एवं अर्जुन के संवाद के रूप में प्रस्तुत किया गया है। गीता में जीवन के विभिन्न पहलुओं, अध्यात्मिकता, योग, और धर्म के विषयों पर गहन विमर्श किया गया है।

### श्रीमद्भगवद्गीता का महत्व

**1. आध्यात्मिक मार्गदर्शन:** गीता के श्लोकों में कर्मयोग, भक्तियोग, और ज्ञानयोग का वर्णन किया गया है, जो हमें जीवन में सही मार्ग दिखाते हैं। इसमें आत्मा की अमरता और संसार की क्षणभंगुरता का ज्ञान दिया गया है।

**2. जीवन की चुनौतियों का सामना:** गीता हमें सिखाती है कि कठिनाइयों का सामना कैसे किया जाए और कैसे अपने कर्मों को धर्म के अनुसार निभाया जाए। अर्जुन की युद्धभूमि में दुविधा को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने जो उपदेश दिए, वे आज भी प्रासंगिक हैं।

**3. आत्मज्ञान और मोक्ष:** गीता में आत्मा की पहचान और मोक्ष के मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित किया गया है। इसमें बताया गया है कि कैसे आत्म-साक्षात्कार से हम संसार के बंधनों से मुक्त हो सकते हैं।

**4. नैतिक और नैतिकता:** गीता में धर्म और अधर्म के बीच के अंतर को स्पष्ट किया गया है। इसमें हमें सिखाया गया है कि कैसे अपने कर्तव्यों को निभाते हुए धर्म का पालन करें।

### गीता के प्रमुख श्लोक

**अध्याय 2, श्लोक 47:**

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।

मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥

**अर्थ:** तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। इसलिए तुम कर्मफल के हेतु मत बनो और न ही कर्म करने में आसक्त रहो।

श्रीमद्भगवद्गीता: जीवन का मार्गदर्शन

श्रीमद्भगवद्गीता भारतीय धर्म, दर्शन और संस्कृति का एक महान ग्रंथ है। इसे हिंदू धर्म के पवित्र ग्रंथों में से एक माना जाता है और इसे महाभारत के भीष्मपर्व में शामिल किया गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच का संवाद प्रस्तुत किया गया है, जो जीवन के गहरे और गूढ़ प्रश्नों का उत्तर प्रदान करता है।


गीता का सार

गीता 18 अध्यायों और 700 श्लोकों का संग्रह है, जिसमें जीवन के हर पहलू को छुआ गया है। यह ज्ञान, भक्ति, कर्म और ध्यान योग जैसे विषयों पर चर्चा करती है। गीता का मुख्य उद्देश्य आत्मा की अनश्वरता, धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा और जीवन में कर्तव्य पालन की आवश्यकता को समझाना है।


गीता का महत्व

1. आत्मा और शरीर का भेद: गीता सिखाती है कि आत्मा अजर और अमर है, जबकि शरीर नाशवान है। आत्मा का यही ज्ञान मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त करता है।

2. कर्तव्य और धर्म: भगवान कृष्ण कहते हैं कि अपने धर्म और कर्तव्यों का पालन करना सबसे महत्वपूर्ण है। अपनी इच्छाओं और फलों की चिंता किए बिना निष्काम भाव से कर्म करना ही सच्चा योग है।

3. सभी के लिए सन्देश: गीता के उपदेश न केवल किसी धर्म विशेष के लिए हैं, बल्कि ये संपूर्ण मानवता को प्रेरित करते हैं। यह प्रेम, सेवा और भाईचारे का संदेश देती है।

आधुनिक युग में गीता

आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेश और भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं। तनाव, असफलता और आत्म-संदेह जैसे मुद्दों से जूझ रहे लोगों के लिए गीता एक मार्गदर्शक की भूमिका निभाती है। इसके श्लोक मानसिक शांति प्रदान करते हैं और जीवन जीने की नई प्रेरणा देते हैं।


गीता पढ़ने का लाभ

मानसिक शांति और सकारात्मकता में वृद्धि।

  1. जीवन के वास्तविक उद्देश्य को समझने में मदद।
  2. विपरीत परिस्थितियों में धैर्य और संतुलन बनाए रखना।
  3. आत्म-ज्ञान और आत्म-विश्वास का विकास।
  4. श्रीमद्भगवद्गीता – जीवन का सार श्रीमद्भगवद्गीता, हिंदू धर्म का एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का संग्रह माना जाता है। यह ग्रंथ न केवल धार्मिक महत्व रखता है, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं पर मार्गदर्शन प्रदान करता है। **गीता का सार:** गीता का मुख्य संदेश कर्मयोग है, अर्थात् कर्तव्यपथ पर चलते हुए निष्काम भाव से कार्य करना। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं कि कर्म ही जीवन का धर्म है और उससे कभी भी भागना नहीं चाहिए। हमें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए फल की इच्छा त्याग देनी चाहिए। इस तरह हम मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। **गीता के प्रमुख विषय:** * **कर्मयोग:** कर्म करने का महत्व और निष्काम भाव से कार्य करने की शिक्षा। * **ज्ञानयोग:** ज्ञान प्राप्ति का मार्ग और ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति। * **भक्ति योग:** भगवान की भक्ति के माध्यम से मोक्ष प्राप्ति का मार्ग। * **राजयोग:** मन को नियंत्रित करने और आत्मसाक्षात्कार की प्राप्ति का मार्ग। **गीता का प्रभाव:** गीता का प्रभाव न केवल हिंदू धर्म पर बल्कि विश्व के अन्य धर्मों और दर्शनों पर भी पड़ा है। महात्मा गांधी, स्वामी विवेकानंद और अन्य महान व्यक्तियों ने गीता के सिद्धांतों से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को सफल बनाया। **गीता का संदेश आज भी प्रासंगिक है:** आज के युग में भी गीता का संदेश अत्यंत प्रासंगिक है। हमें अपने कर्तव्य का पालन करते हुए निष्काम भाव से कार्य करना चाहिए। हमें लालच, मोह और क्रोध से दूर रहना चाहिए और सत्य, अहिंसा और धर्म का पालन करना चाहिए।

### निष्कर्ष

श्रीमद्भगवद्गीता केवल एक धार्मिक ग्रन्थ नहीं है, बल्कि यह जीवन के विभिन्न पहलुओं का मार्गदर्शन करती है। इसकी शिक्षाएँ हमें न केवल आध्यात्मिक ऊँचाइयों तक पहुँचाती हैं, बल्कि हमें एक सच्चे और निष्ठावान व्यक्ति बनने के लिए प्रेरित करती हैं। गीता का अध्ययन और पालन हमें जीवन में शांति, संतुष्टि, और सही दिशा प्रदान कर सकता है। यह हमें सिखाती है कि हर स्थिति में धैर्य और साहस बनाए रखते हुए सही रास्ते पर आगे बढ़ना चाहिए। गीता के उपदेशों को अपनाकर हम न केवल अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं, बल्कि समाज में भी सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।

“गीता” को समझना और इसके संदेश को आत्मसात करना, जीवन की हर परीक्षा में विजय प्राप्त करने की कुंजी है,श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो हमें जीवन के हर पहलू पर मार्गदर्शन प्रदान करता है। हमें गीता के उपदेशों को अपने जीवन में उतारना चाहिए और एक सार्थक जीवन जीना चाहिए।

अगर आप गीता को और अधिक गहराई से जानना चाहते हैं, तो इसका अध्ययन अवश्य करें और इसके श्लोकों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास करें। जय श्रीकृष्ण!

मोक्ष

मोक्ष एक दार्शनिक शब्द है जो हिन्दू, बौद्ध, जैन तथा सिख धर्मों में प्रमुखता से आता है जिसका अर्थ है मोह का क्षय होना । शास्त्रों । मोक्ष के बारे में बताने वाले मुख्य हिन्दू दर्शन, बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, भारतीय दर्शन है।

मोक्ष में मुक्त आत्माओं का चित्रण

शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्यतलाए हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से मोक्ष परम अभीष्ट अथवा ‘परम पुरूषार्थ’ कहा गया है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात् करना बतलाया गया है । न्यायदर्शन के अनुसार दुःख का आत्यंतिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । सांख्य के मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । वेदान्त में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा मायासम्बन्ध से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है । तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना ही मोक्ष है ।

मोक्ष की कल्पना स्वर्ग-नरक आदि की कल्पना से पीछे की है और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है । स्वर्ग लोक की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरान्त फिर इस संसार में आकर जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे । पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं

भारतीय दर्शन में नश्वरता को दुःख का कारण माना गया है। संसार आवागमन, जन्म-मरण और नश्वरता का केंद्र हैं। इस अविद्याकृत प्रपंच से मुक्ति पाना ही मोक्ष है। प्राय: सभी दार्शनिक प्रणालियों ने संसार के दुःखमय स्वभाव को स्वीकार किया है और इससे मुक्त होने के लिये कर्ममार्ग या ज्ञानमार्ग का रास्ता अपनाया है। मोक्ष इस तरह के जीवन की अंतिम परिणति है। इसे पारपार्थिक मूल्य मानकर जीवन के परम उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया है। मोक्ष को वस्तुसत्य के रूप में स्वीकार करना कठिन है। फलतः सभी प्रणालियों में मोक्ष की कल्पना प्रायः आत्मवादी है। अन्ततोगत्वा यह एक वैयक्तिक अनुभूति ही सिद्ध हो पाता है। सबसे पहले तो पुण्य या पाप से मुक्ति नहीं मिलती। पुण्य और पाप दोनों ही कर्म बंधन में बांधने वाले हैं, दोनों का अभाव ही मोक्ष है। इसके लिए आवश्यक है कि पुण्य अथवा पाप के प्रति आसक्ति रखे बिना प्राकृतिक रूप से कर्म करते चलना है। जिस प्रकार से नदी के प्रवाह में पड़े हुए पत्ते की कोई स्वतंत्र इच्छा नहीं होती अपितु वह जल के प्रवाह के ही समान गतिशील होता है, उसी प्रकार व्यक्ति भी अपनी स्वतंत्र शुभाशुभ इच्छाओं का परित्याग करके यदि केवल कर्तव्य कर्मों के प्रति आचरण करे, तो उसके कर्म बंधन का धीरे-धीरे स्वतः लोप हो जाता है और यही क्रम मुक्ति का प्रथम सोपान है। यद्यपि विभिन्न प्रणालियों ने अपनी-अपनी ज्ञानमीमांसा के अनुसार मोक्ष की अलग अलग कल्पना की है, तथापि अज्ञान, दुःख से मुक्त हो सकता है। इसे जीवनमुक्ति कहेंगे। किंतु कुछ प्रणालियाँ, जिनमें न्याय, वैशेषिक एवं विशिष्टाद्वैत उल्लेखनीय हैं; जीवनमुक्ति की संभावना को अस्वीकार करते हैं। दूसरे रूप को “विदेहमुक्ति” कहते हैं। जिसके सुख-दु:ख के भावों का विनाश हो गया हो, वह देह त्यागने के बाद आवागमन के चक्र से सर्वदा के लिये मुक्त हो जाता है। उसे निग्रहवादी मार्ग का अनुसरण करना पड़ता है। उपनिषदों में आनन्द की स्थिति को ही मोक्ष की स्थिति कहा गया है, क्योंकि आनन्द में सारे द्वंद्वों का विलय हो जाता है। यह अद्वैतानुभूति की स्थिति है। इसी जीवन में इसे अनुभव किया जा सकता है। वेदांत में मुमुक्षु को श्रवण, मनन एवं निधिध्यासन, ये तीन प्रकार की मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। इस प्रक्रिया में नानात्व, का, जो अविद्याकृत है, विनाश होता है और आत्मा, जो ब्रह्मस्वरूप है, उसका साक्षात्कार होता है। मुमुक्षु “तत्वमसि” से “अहंब्रह्यास्मि” की ओर बढ़ता है। यहाँ आत्मसाक्षात्कार को हो मोक्ष माना गया है। वेदान्त में यह स्थिति जीवनमुक्ति की स्थिति है। मृत्यूपरांत वह ब्रह्म में विलीन हो जाता है। ईश्वरवाद में ईश्वर का सान्निध्य ही मोक्ष है। अन्य दूसरे वादों में संसार से मुक्ति ही मोक्ष है। लोकायत में मोक्ष को अस्वीकार किया गया है।

हिन्दू दर्शन

हिन्दू धर्म में मोक्ष का बहुत महत्त्व है। यह मनुष्य जीवन चार उद्देश्यों में बांटा गया है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये पुरुषार्थ चतुष्टय कहलाते हैं। इनका वर्णन वेदों व अन्य हिन्दू धार्मिक पुस्तकों में पाया जाता है। ये चारों आपस में गहरा संबन्ध रखते हैं। धर्म का अर्थ है वे सभी कार्य जो आत्मा व समाज की उन्नति करने वाले हों। अर्थ से तात्पर्य है किसी अच्छे कलात्मक कार्य द्वारा धनार्जन करना। काम का अर्थ है जीवन को सात्विक व सुःख सुविधासंपन्न बनाना। मोक्ष का अर्थ है आत्मा द्वारा अपना और परमात्मा का दर्शन करना। आत्मा को मोक्ष भगवान की कृपा से प्राप्त होता है। भगवान की कृपा उन्ही आत्माओं पर होती है जिन्होंने शरीर में रहते हुए अच्छे कर्म किए हों। मोक्ष प्राप्ति के लिए मनुष्य को अष्टांग योग भी अपनाना चाहिए। अष्टांग योग का वर्णन महर्षि पतंजलि ने अपने ग्रंथ योगसूत्र में किया है। गीता में भी योग के बारे में वर्णन है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रंथ ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में भी अष्टांग योग के बारे में वर्णन किया है।

बौद्ध दर्शन

बौद्ध दर्शन में निर्वाण की कल्पना मोक्ष के समानांतर ही की गई है। “निर्वाण” शब्द का अर्थ है, बुझ जाना। निर्वाण शब्द की इस व्युत्पत्ति के मूल अर्थ को लेकर आलोचकों ने निर्वाण के सिद्धान्त को निरर्थक बना दिया है। उनका मानना है कि निर्वाण का अर्थ है सभी मानवीय भावनाओं का बुझ जाना, जो मृत्यु के सामान है। इस प्रकार के अर्थ द्वारा निर्वाण के सिद्धांत का उपहास बनाने की कोशिश की है। दूसरी बात है कि आलोचक ‘निर्वाण’ और ‘परिनिर्वाण’ में भेद करना भी भूल गए हैं। “जब शरीर के महाभूत बिखर जाते हैं, सभी संज्ञाएँ रुक जाती हैं, सभी वेदनाओं का नाश हो जाता है, सभी प्रकार की प्रतिक्रया बन्द हो जाती है और चेतना जाती रहती है, परिनिर्वाण कहलाता है। निर्वाण का कभी भी यह अर्थ नहीं हो सकता। निर्वाण का अर्थ है अपनी भावनाओं पर पर्याप्त संयम रखना, जिससे आदमी धर्म के मार्ग पर चलने के योग्य बन सके। तथागत बुद्ध ने यह स्पष्ट किया था की सदाचरणपूर्ण जीवन का ही दूसरा नाम निर्वाण है। निर्वाण का अर्थ है वासनाओं से मुक्ति। निर्वाण प्राप्ति से सदाचरणपूर्ण जीवन जिया जाता है। जीवन का लक्ष्य निर्वाण ही है। निर्वाण ही ध्येय है। निर्वाण माध्यम मार्ग है। निर्वाण आष्टागिक-मार्ग के अतिरिक्त कुछ नहीं है। बौद्ध दर्शन में भी बंधन का कारण तृष्णा, वितृष्णा तथा अविद्या को माना गया है। जब आदमी इन बंधनों से मुक्त हो जाता है तो वह निर्वाण प्राप्त करना जन जाता है और उसके लिए निर्वाण-पथ खुल जाता है। इसके लिये अष्टांगिक मार्ग की व्यवस्था की गई है। वे इस प्रकार हैं: सम्यग् दृष्टि, सम्यग् संकल्प, सम्यग् वचन, सम्यग् कर्म, सम्यग् जीविका, सम्यग् प्रयत्न, सम्यग् स्मृति और सम्यग् समाधि। इनमें से प्रथम दो ज्ञान, मध्य के तीन शील एवं अंतिम तीन समाधि के अंतर्गत आते हैं। इस मार्ग का अनुसरण करने पर तृष्णा का निरोध होता है, तृष्णा के निरोध से संग्रह प्रवृति का निरोध होता है। इस प्रकार की मुक्ति जीवन में भी संभव है, किंतु मृत्यूपरांत निर्वाण का क्या स्वरूप होगा, इसे निषेधात्मक रूप से बतलाया गया है। एक प्रकार से वह शल्नय के समान है।

जैन दर्शन

मुख्य लेख: मोक्ष (जैन धर्म)

जैन दर्शन में जीव और अजीव का सबंध कर्म के माध्यम से स्थापित होता है। कर्म के माध्यम से जीव को अजीव या जड़ से बँध जाना ही बंधन है। इस प्रक्रिया का आस्राव शब्द से व्यक्त करते हैं। आस्राव का निरोध होने पर ही जीव अजीव से मुक्त हो सकता है। इसके लिये त्रिविध संयम की व्यवस्था की गई है। सम्यग् दर्शन (सही श्रद्धा), सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चरित्र का पालन करते हुए मोक्ष की प्राप्ति होती है। इन “रत्नत्रय” के पालन से “आश्रव” निरूद्ध होता है। मुक्त होने के क्रम में दो स्थितियाँ आती हैं। पहले नवीन कर्मों का प्रवाह निरुद्ध होता है, इसे “संवर” कहते हैं। दूसरी अवस्था में पूर्व जन्मों के संचित कर्मों का भी विनाश हो जाता है। इसे “निर्जरा” कहते हैं। इसके बाद की ही स्थिति मोक्ष कहलाती है। यह जीवनमुक्ति की स्थिति है, यह स्पष्ट रूप से पारमार्थिक स्वरूप माना गया है। विदेहमुक्ति की अवस्था में “केवल ज्ञान” की उपलब्धि हो जाती है। ऐसी स्थिती में आत्मा सर्वांगीण संपूर्ण होती है। अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत शांति एवं अनंत ऐश्वर्य उसे सहज ही प्राप्त हो जाते हैं।

न्याय एवं वैशेषिक दर्शन

न्याय वैशेषिक मोक्ष की कल्पना भिन्न प्रकार से करते हैं। वे मोक्ष की स्थिति को आनंदमय नहीं मानते। क्योंकि दु:ख और सुख दोनों आत्मा के विशेष गुण हैं, इसलिये दोनों सत्य हैं। न्याय वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं। इसीलिये दोनों सत्य हैं। न्याय वैशेषिक अभाव को भी एक पदार्थ मानते हैं। इसीलये दु:ख के अभाव का अर्थ आनंद का होना, नहीं है। मुक्ति का अर्थ है “अपवर्ग”, दु:ख सुख दोनों से परे होना। ये दोनों आत्मा के मूलभूत गुण नहीं हैं। इसलिये मोक्ष की स्थिति में आत्मा दोनों से मुक्त हो जाती है। दु:ख से मुक्ति पाने के पहले हमें सुख की आशा ही छोड़ देनी चाहिए। क्योंकि दु:ख अंत तक हमारा पीछा नहीं छोड़ता, लेकिन हम उसका अतिक्रमण कर सकते हैं। यह अवस्था सुख दु:ख के परे होने से प्राप्त होती है। ऐसा व्यक्ति देहत्याग के पश्चात् विदेहमुक्ति को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में आत्मा अपने विशेष गुणों से परे हो जाता है। एक तरह से वह संवेदनहीन और इच्छाशून्य हो जाता है उसमें पुन: चैतन्य प्रविष्ट होगा ही नहीं। जीवनमुक्ति इस संप्रदाय में अस्वीकार की गई है। फिर वह अच्छे कर्मो का संपादन करते हुए, “दिव्य विभूति” पद को प्राप्त कर सकता है। किंतु आत्मा के विशेष गुण बने रहेंगें। इसमें भी योग, ध्यान और क्रमिक अभ्यास के कठोर संयमों का पालन करना पड़ता है।

सांख्य दर्शन

सांख्य योग में “कैवल्य” को जीवन का परम लक्ष्य माना गया है। यह मोक्ष के समान ही है। यह जिससे मुक्त होता है, उवसे प्रकृति और जो मुक्त होता है, उसे पुरूष स्वरूप से ही असंग है। कैवल्य उसका स्वभाव है। प्रकृति के संसर्ग में आने पर वह अपने स्वरूप को भूल जाता है। वह अहमबूद्धि के आ जाने पर संसार को सत्य मान लेता है। संसार के प्रति अनासक्ति भाव उत्पन्न करने के लिये मुुमुक्ष को कठोर तप, नियम एवं संयम का पालन करना पड़ता है। इस कठोर साधना के आठ अंग हैं, यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। इस साधना के माध्यम से व अहंभाव से मुक्त होता है। यहाँ मुक्त होने का अर्थ किसी अन्य सत्ता, ईश्वर या ब्रह्म से संयोग नहीं है, बल्कि मोक्ष यहाँ वियोग की स्थिति है। प्रवृति से मुक्त होकर, परमशांति का मनन करता हुआ पुरूष अपनी असफलता को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में साधक जीवन मुक्त हो जाता है। प्रकृति से अपनी भिन्नता को समझते हुए वह रोग द्वेष इत्यादि से प्रभावित नहीं होगा। देह त्यागने के बाद वह विदेह मुक्त हो जाएगा। सांध्य ईश्वर में विश्वास नहीं करता, लेकिन योग ईश्वर प्रणिधान या भक्ति को भी मोक्ष का साधन मानता है। किंतु यह श्रद्धालु अथवा अज्ञानियों के लिये स्वीकृत किया गया है, जो कठोर योगागों का अभ्यास करने में अक्षम हैं।

पूर्वमीमांसा

पूर्वमीमांसा में कर्म को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। इसलये जीवन में दु:ख से मुक्ति और सुख की प्राप्ति की इच्छा करनेवाला धार्मिक कर्म करे। ये धार्मिक कर्म, यज्ञ, दान, इत्यादि करने से स्वर्गादि की प्राप्ति हाती है। एक तरह से मोक्ष कर इससे कोई संबंध नहीं है।

अद्वैत वेदान्त

अद्वैत वेदांत में मोक्ष की कल्पना उपनिषदों के आधार पर की गई है। वेदान्त में कर्म अथवा भक्ति की प्रधानता न देकर ज्ञान को प्रधानता दी गई है। यद्यपि मुमुक्षु को कुछ निश्चित अनुशासनों का पालन करना पड़ता है। इसके अनन्तर अद्वैतवादी शिक्षा पर ध्यान एकाग्र किया जाता है। आत्मा को ब्रह्मस्वरूप माना गया है। “अहं ब्रह्मास्मि” का ज्ञान होना होता है, यही मोक्ष है। तब आत्मा सत् , चित् , आनन्द से पूर्ण हो जाता है। आचार्य शंकर इस सिद्धान्त के प्रधान व्याख्याता हैं।

विवेकचूडामणि में कहा गया है-

जातिनीतिकुल-गोत्र-दूरगं

नामरूपगुणदोषवर्जितम् ।

नाम रूप गुण दोष वर्जितम् ।

देशकालविषयातिवर्ति यद्ब्रह्म

तत्त्वमसि भावयात्मनि ॥२५४॥

(अर्थ : जाति, नीति, कुल, गोत्र से परे ; नाम, रूप, गुण दोष से रहित, जो देशकाल और विषयों से परे है और जिसमें ‘यद्ब्रह्म तत्त्वमसि’ (जो ब्रह्म है, वही तुम हो) का भाव अपने अन्दर लाओ)

विशिष्टाद्वैत

विशिष्टाद्वैत में ज्ञान की अपेक्षा भक्ति को प्रधान माना गया है। भक्ति के माध्यम से नारायण का सान्निध्य प्राप्त होता है।

नारायण के संरक्षण में ही पूर्णमुक्ति और आनंद की प्राप्ति होती है। यह सान्निध्य दो साधनों से प्राप्त किया जा सकता है। क्रमश: इसे भक्ति और प्रपत्ति कहते हैं। प्रपत्ति का अर्थ है ईश्वर की कृपा पर पुर्ण विश्वास करके आत्मसमर्पण करना। इससे सहज ही मोक्ष लाभ होता है। रामानुज ने भक्ति के अंतर्गत कर्मयोग एवं ज्ञानयोग को भी गौण महत्व दिया है। भक्तियोग में ईश्वर का निरंतर चिंतन अनिवार्य बतलाया गया है। इस चिंतन का रूप प्रेममय भी हो सकता है। किंतु इसके माध्यम से मुमुक्षु ईश्वर की ओर उन्मुख होता है, उसे ईश्वर की प्रत्याक्षानुभूति नहीं होती। इसीलिये रामानुज जीवनमुक्ति को नहीं मानते। वह तो विदेहमुक्ति के बाद नारायण के लोक में ही सँभव है। प्रपति और भक्ति के माध्यम से ही ईश्वरकृपा के फलस्वरूप मुक्ति संभव है। मध्वाचार्य भी मोक्ष के लिये भक्ति को साधन मानते हैं। इसी भक्ति के कारण जीव को ईश्वर का प्रसाद प्राप्त होता है और वह मोक्ष प्राप्त कर लेता है।